Friday, January 21, 2022

सरसो की उन्नत खेती कैसे करे किसान? Kisan help room



सरसो

सरसों अर्थात राई भारत की प्रमुख तिलहनी फसल है । हरियाणा में प्रमुखता के साथ ही उत्तरप्रदेश, पंजाब, बिहार, राजिस्थान, मध्यप्रदेश आदि राज्यो में भी सरसो की खेती की जाती है। कम समय और कम खर्च में अधिक मुनाफा देने वाली सरसो की फसल के हरे पौधों का प्रयोग किसान भाई अपने पशुओं के हरे चारे के रूप में भी कर सकते है। इसके साथ ही पशु आहार के रूप में इसके बीज, तेल, तथा खली को लेसकते हैं।और इनका प्रभाव पशुओ पर बहुत ही अधिक होता है। यें हमारे पशुओ में कई प्रकार के रोगो की रोकथाम में भी सहायक सिद्ध होते है। 

सरसो के तेल को खाद्य पदार्थो के साथ साथ ही कई औद्योगिक उत्पादनो भी प्रयोग किया जाता है। इसके साथ ही फल तथा सब्जियों के परिरक्षण के रूप में भी किया जाता है। सरसों के बीज में तेल की मात्रा 30 से 48 प्रतिशत तक पायी जाती है।

सरसो की खली को हमारे किसान भाई पशु आहार के साथ ही कुछ किसान अपने खेतों में खाद के रूप में भी प्रयोग करते है। इसमें में लगभग 4 से 9 प्रतिषत नत्रजन, 2.5 प्रतिषत फॉस्फोरस तथा 1.5 प्रतिषत पोटाश होता है।

इसके सूखे तनों को ईधन के रूप में जलाने के काम मे लिया जाता है। 

जलवायु तथा मिट्टी

भारत में सरसों की खेती शरद ऋतु में अक्टूबर से शुरू की जाती है और फरवरी, मार्च में इसकी कटाई की जाती है। इस फसल को 18 से 25 सेल्सियस तापमान की आवश्यकता होती है। सरसों की फसल के लिए फूल आते समय वर्षा, अधिक आर्द्रता एवं वायुमण्ड़ल में बादल छायें रहना अच्छा नही होता है। ऐसे मौसम में सरसों फसल पर माहू या चैपा का प्रकोप हो जाता हैं।

सरसों की खेती रेतीली मिट्टी से लेकर भारी मटियार मिट्टी में भी की जा सकती है। लेकिन बलुई दोमट मिट्टी इसके लीये सर्वाधिक उपयुक्त होती है। यह फसल हल्की क्षारीयता को सहन कर सकती है। लेकिन मिट्टी अम्लीय नही होनी चाहिए।

सरसों की उन्नत किस्में:

आर एच 30 : सिंचित व असिचित दोनो ही क्षेत्रो में गेहूु, चना और जौ के साथ खेती के लिए उपयुक्त इसस किस्म के पौधों 196 सेन्टीमीटर ऊचे, तथा 5से 6 प्राथमिक शाखाओ वाले होते है। यह किस्म देर से बुवाई के लिए भी उपयुक्त है। इस किस्म में 45 से 50 दिन के बीच में फूल आने लगते है। और फसल लगभग 130 से 135 दिन में पक कर तैयार हो जाती है।  इसके दाने मोटे चमकदार होते है। यदि 15 से 20 अक्टूबर तक इसकी बुवाई कर दी जाये तो मोयले के प्रकोप से बचा जा सकता है।



टी 59 (वरूणा) : मध्यम कद वाली इस किस्म की सरसो के पकने की अवधि लगभग 125 से 140 दिन है। इस किस्म की फलिया चौडी तथा छोटी और दाने मोटे काले रंग के होते है। इसमें तेल की मात्रा 36 प्रतिषत होती है।

पूसा गोल्ड : मध्यम कद वाली इस किसम की शाखाए फलियों से भरी हुई व फलिया मोटी होती है। यह 130 से 140 दिन में पककर तैयार हो जाती है। 20 से 25 कुंतल प्रति हैक्टर उपज देती है। इसमें तेल की मात्रा 37 से 38 प्रतिषत तक पायी जाती है।

बायो 902 (पूसा जयकिसान)  : 160 से 180 से. मी. ऊँची वाली इस किस्म में सफेद रोली ,मुरझान व तुलासितस रोगो का प्रकोप अन्य किस्मों की अपेक्षा कम होता है। इसकी फलिया पकने पर दाने झड़ते नही एवं इसका दाना कालापन लिए भूरे रंग का होता है। इसकी उपज 18 से 20 कुंतल प्रति हेक्टर है। फसल पकने की अवधि 130 से 140 दिन तथा तेल की मात्रा 38 से 40 प्रतिषत होती है।  इसका तेल खाने के लिए उपयुक्त होता है।

वसुन्धरा (आर.एच. 9304) : सिंचित क्षेत्र में बोई जाने वाली इस किस्म का पौधा 180 से 190 से. मी. ऊँचा होता है। 130 से 135 दिन में पकने वाली इस किस्म की पैदावार 25 से 27 कुंतल प्रति हेक्टर तक होती है। यह किस्म आड़ी गिरने तथा फली चटखने से प्रतिरोध है तथा सफेद रोली से मध्यम प्रतिरोधी भी है।

अरावली (आर.एन.393) : 135 से 138 दिन में पकने वाली किस्म आरावली के पौधे मध्यम  ऊंचाई के होते है। इस किस्म में तेल की मात्रा 40 प्रतिशत तक होती  है। इसमे 55 से 60 दिनो के बीच ही पौधों पर फूल आने लगते है। इसकी औसत पैदावार 22 से 25 क्विं. हेक्टर तक होती है। यह सफेद रोली से मध्यम प्रतिरोधी है।

जगन्नाय (बी. एस. एल.5) : यह किस्म समय से बुवाई और सिचित क्षैत्र के लिए उपयुक्त है। मध्यम ऊँचाई वाली  यह किस्म लगभग 125 से 130 दिन में पककर तैयार हो जाती है। इसके दाना स्लेटी से काले रंग का मध्यम मोटा होता है । इसमे तेल की मात्रा 39 से 40 प्रतिषत तथा इसकी औसत पैदावार 20 से 22 कुंतल प्रति हैक्टर तक होती है। यह किस्म पत्ती धब्बा रोग तथा सफेद रोली के प्रति मध्य प्रतिरोधी है आड़ी गिरने व फली चटखने से प्रतिरोधी होती है।

लक्ष्मी (आर .एच. 8812) : समय से बंवाई एवं सिचिंत क्षेत्र के लिए उपयोगी किसम है। अधिक ऊचाई वाली  यह किस्म 140 से 150 दिन में पककर तैयार हो जाती है। पत्तियॉ छोटी एव पतली होती है। फली आने पर भार के कारण आड़ी पडने की सम्भावना बनी रहती है। फलियॉ मोटी एवं पकने पर चटखती नही है। दाना काला तथा मोटा होता है। तेल की मात्रा 40 प्रतिशत होती है। तथा औसत पैदावार 22 से 25 कुंतल प्रति हैक्टयर होती है यह किस्म पत्ती धब्बा रोग एवं सफेद रोली से मध्यम प्रतिरोधी है।

स्वर्ण ज्योति (आर. एच. 9820) : देर से बुवाई की जाने तथा सिंचित क्षेत्र के लिये उपयुक्त। पौधा मध्यम ऊँचाई का लगभग 135से 140 दिन में पककर तैयार हो जाती है तेल की मात्रा 39 से 40 प्रतिशत तक होती है। यह किस्म 15 नवम्बर तक बोई जाने पर भी अच्छी पैदावार देती है इसकी औसत पैदावार 13 से15 कुंतल प्रति हैक्टयर होती है। यह आड़ी गिरने एवं फली छिटकने से प्रतिरोधी है तथा पाले के लिए मध्यम सहनशील  एवं सफेद रोली से मध्य प्रतिरोधी है।

आषीर्वाद (आर. के. 01से03) : यह किस्म देरी से बुवाई के लिए लगभग 25 अक्टुबर से 15 नवम्बर तक उपयुक्त पायी गई है। इसका पौधा 130 से 140 से. मी. ऊँचा होता है। यह किस्म 120 से 130 दिन में पककर तैयार हो जाती है। इसमे तेल की मात्रा 39 से41 प्रतिशत तक होती है। प्रति हेक्टयर उपज 13 से 15 कुंतल। यह  किस्म आड़ी गिरने एवं फली छिटकने से प्रतिरोधी पाले से मध्यम प्रतिरोधी है।

खेत की तैयारी :

 अन्य फसलों की तरह सरसों की अच्छी फसल के लिए भी खेत की मिट्टी को भुर-भुरा करने की आवश्यकता होती है। इसेके लिए खरीफ की फसल कटाई के बाद हेरो या प्लाऊ से एक गहरी जुताई करनी चाहिए। गहरी जुताई के बाद तीन चार बाार देशी हल या कल्टीवेटर से जुताई हो होती है। जुताई के बाद पाटा लगाकर खेत को  समतल करना चाहिए। असिंचित क्षेत्र में वर्षा के पहले जुताई करके खरीफ मौसम में ही खेत पड़ती छोडना चाहिए जिससे वर्षा के पानी का संरक्षण हो सके । इसके बाद हल्की जुताई करके खेत तैयार करना चाहिए । यदि खेत में दीमक एवं अन्य कीटो का प्रकोप अधिक हो तो इसके नियंत्रण हेतु अन्तिम जुताई के समय क्यूनालफॉस 1.5 प्रतिशत चूर्ण 25 किलोग्राम प्रति हेक्टयर की दर से  खेत मे डालकर आखरी जुताई करनी चाहिए। और इसके साथ ही, उत्पादन बढ़ाने हेतु 2 से 3 किलोग्राम एजोटोबेक्टर एवं पी.ए.बी कल्चर की 50 किलोग्राम सड़ी हुई गोबर की खाद या वर्मीकल्चर में मिलाकर अंतिम जुर्ता से पुर्ण खेत में ड़ालना चाहिए।

सरसों की बुवाई :

सरसों की फसल बुवाई के लियें उपयुक्त तापमान 25 से 26 डिग्री सैल्सियस तक होता है। बारानी क्षेत्रो में सरसों की बुवाई 15 सितम्बर से 15 अक्टुबंर तक कर देनी चाहिए। सिंचित क्षैत्रो में अक्टूबर के अन्त तक बुवाई की जा सकती हैं  सरसों की बुवाई कतारो में करने से पैदावार में बढ़ोतरी होती है। सरसो बुवाई करते समय किसान भाई ध्यान दे कतार से कतार की दूरी 30 सें. मी. तथा पौधों से पौधें की दूरी 10 सें. मी. रखनी चाहिए। सिंचित क्षैत्र में बीज की गहराई 5 से. मी. तक रखी जाती है। असिचित क्षैत्र में बीज की गहराई नमी के अनुसार ही रखनी चाहिए।

बुंवाई के लिए बारानी क्षेत्रो में 4 से 5 कि.ग्रा तथा सिंचित क्षेत्रो में 2.5 कि. ग्रा बीज प्रति हैक्टर की दर से पर्याप्त रहता है।  बुवाइे से पहले बीज को 2.5 ग्राम मैन्कोजेब प्रति कि.ग्रा. बीज की दर से उपचारित अवश्य करें।

खाद व उर्वरक :

सिंचित क्षेत्र में सरसो की फसल के लिए 8 से 10 टन सड़ी हुई गोबर की खाद प्रति हेक्टर की दर से बुवाई के 3से 4 सप्ताह पहले ही खेत मे डालकर खेत की जुताई करे। और बारानी क्षत्र में वर्षा  पुर्व ही 4 से 5 टन सडी खाद प्रति हैक्टर खेत में डालनी चाहिए।

सिंचित क्षेत्र में 

80 कि.ग्रा. नत्रजन 

30 से 40 किग्रा फॉस्फोरस

375 किग्रा. जिप्सम या 60 किग्रा गन्धक चूर्ण प्रति हैक्टर की दर से डालें। 

नत्रजनकी आधी व फॉस्फोरस की पूरी मात्रा बुवाई के समय ही डाल दे। शेष आधी बची मात्रा प्रथम सिचाई के समय दे।

सिंचाई :

सरसों की फसल में सही समय पर सिंचाई करने पर पैदावार अच्छी होती है। यदि वर्षा अधिक होती है। तो फससल को सिचाई की आवष्यकता नही होती है। यदि वर्षा समय पर न हो तो खेत की 2 बार सिंचाई करनी चाहिए। प्रथम सिंचाई बुवाई के 30 से 40 दिन बाद और दूसरी सिचाइ 70 सें 80 दिन की अवस्था में करे । यदि जल की कमी हो तो एक सिचाई 40 से 50 दिन की फसल में ही करदे।

निराई गुडाई तथा खरपतवार नियन्त्रण :

फसल के साथ खेत मे उगने वाले खरपतवार को समय रहते ही खेत से निकाल देना चाहिये।

सरसो बुवाई के 20 से 25 दिन बाद निराई करना चाहिये। खरपतवार के साथ ही सरसो के फालतू पौधों की भी छटाई कर देनी चाहिये तथा पौधों के बीच 8 से 10 सेन्टी मीटर की दूर रखनी चाहिए। सिचाई के बाद गुडाई करने से पैदावार अच्छी होगी।

प्याजी की रोकथाम के लियें फ्लूम्लोरेलिन एक लीटर सक्रिय तत्व प्रति हैक्टर भूमि में मिलावें। जहा पलेना करके बुवाई की जानी हो वहों सूखी बुवाई की स्थिति में पहलें फसल की बुवाई करे इसकें बाद फ्लूम्लोरेलिन का छिड़काव कर सिचाई करनी चाहिए।

फसल की कटाई :

प्रायः सरसों की फल लगभग 120 से150 दिन में पक्कर तैयार हो जाती है। सरसो की फसल कटाई उचित समय पर करना अत्यन्त आवश्यक है। यदि समय पर सरसो फसल की कटाई नहीं की जाती है। तो फलि‍याँ चटकने लगती है। जिससे उपज में 5 से 10 प्रतिषत की कमी आ जाती है।



र्जैसे ही पौधे की पत्तियों एवं फलियों का र्रंग पीला पड़ने लगें फसल की कटाई कर लेनी चाहिए। कटाई के समय इस बात का विशेष ध्यान रखे की सत्यानाषी खरपतवार का बीज, फल के साथ न मिलने पाये नही तों इस फसल के दूषित तेल से मनुष्य में ड्रोपसी  नामक बीमारी हो जाती है।

फसल काटने के बाद उसे थ्रेशर मशीन से निकाल कर दाने तथा भूसे को अलग करलेते है। सरसो के दानों को बोरियो में भरकर स्टोर में भेज दिया जाता है। और भूसा का उपयोग गलाकर कार्बनिक खाद के रूप में खुद किसान भाई ही करते है। अथवा फेक्ट्रियो में जलाने के लिये बेच देते है।

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