मिर्च प्राय: सभी प्रकार के खाने मे प्रयोग की जाती है।
वर्षभर बाजार मे मांग बनी रहने के कारण मिर्च की खेती किसानो के लिए बहुत ही लाभदायक है।
मिर्च भारत के अनेक राज्यों में पहाड़ी व मैदानी क्षेत्रों में फल के लिए उगायी जाती है. मिर्च का तीखापन ओलियोरेजिल कैप्सिसिन नामक एक उड़नशील एल्केलॉइड पदार्थ के कारण तथा उग्रता कैप्साइिसन नामक एक रवेदार उग्र पदार्थ के कारण होती है। देश में मिर्च का प्रयोग हरी मिर्च की तरह एवं मसाले के रूप में भरपूर मात्रा मे किया जाता है। इसे सब्जियों और चटनियों में डाला जाता है।
मिर्च भारत के अनेक राज्यों में पहाड़ी व मैदानी क्षेत्रों में फल के लिए उगायी जाती है. मिर्च का तीखापन ओलियोरेजिल कैप्सिसिन नामक एक उड़नशील एल्केलॉइड पदार्थ के कारण तथा उग्रता कैप्साइिसन नामक एक रवेदार उग्र पदार्थ के कारण होती है। देश में मिर्च का प्रयोग हरी मिर्च की तरह एवं मसाले के रूप में भरपूर मात्रा मे किया जाता है। इसे सब्जियों और चटनियों में डाला जाता है।
मिर्च के लिए उपयुक्त जलवायु
मिर्च की खेती के लिए गर्म और आर्द्र जलवायु उपयुक्त होती है। लेकिन इसके फलों के पकते समय मौसम का शुष्क होना आवश्यक है। मिर्च को गर्म मौसम की फसल होने के कारण उस समय तक नहीं उगाया जा सकता, जब तक कि मिट्टी का तापमान बढ न जाए तथा पाले का प्रकोप खत्म न हो गया हो। बीजों का अच्छा अंकुरण 18-30 डि सेंटी ग्रेड तापामन पर होता है। फूल तथा फल लगते समय मिट्टी मे नमी की कमी नही होनी चाहिये। अगर नमी की कमी हो जाती है, तो फल व फूल गिरने लगते हैं। मिर्च के फूल व फल लगने के लिए सबसे उपयुक्त तापमान 25-30 डिग्री सेंटी ग्रेड है। फलते समय ओस का गिरना या फिर तेज वर्षा होना फसल के लिए नुकसानदाक होता है। क्योंकि इसके कारण फूल व छोटे फल टूट कर गिर जाते हैं।
मिर्च की उन्नत किसमे निम्न प्रकार है।
पूसा ज्वाला :
इसके पौधे छोटे आकार के और पत्तियां चौड़ी होती हैं. फल 9-10 सेंटीमीटर लंबे ,पतले, हल्के हरे रंग के होते हैं जो पकने पर हल्के लाल हो जाते हैं. इसकी औसम उपज 75-80 क्विंटल प्रति हेक्टेयर , हरी मिर्च के लिए तथा 18-20 क्विंटल प्रति हेक्टेयर सूखी मिर्च के लिए होती है।
इसके पौधे छोटे आकार के और पत्तियां चौड़ी होती हैं. फल 9-10 सेंटीमीटर लंबे ,पतले, हल्के हरे रंग के होते हैं जो पकने पर हल्के लाल हो जाते हैं. इसकी औसम उपज 75-80 क्विंटल प्रति हेक्टेयर , हरी मिर्च के लिए तथा 18-20 क्विंटल प्रति हेक्टेयर सूखी मिर्च के लिए होती है।
पूसा सदाबहार :
पूसा सदाबहार के पौधे सीधे व लम्बे ; 60 - 80 सेंटीमीटर होते हैं. फल 6-8 सें मी. लंबे, गुच्छों में , 6-14 फल एक गुच्छे में आते हैं तथा सीधे ऊपर की ओर लगते हैं पके हुए फल चमकदार लाल रंग ले लेते है।इसकी औसत पैदावार 90-100 क्विंटल, हरी मिर्च के लिए तथा 20 क्विंटल प्रति हेक्टेयर, सूखी मिर्च के लिए होती है. यह किस्म मरोडिया, लीफ कर्लद्ध और मौजेक रोगों के लिए प्रतिरोधी भी है।
पूसा सदाबहार के पौधे सीधे व लम्बे ; 60 - 80 सेंटीमीटर होते हैं. फल 6-8 सें मी. लंबे, गुच्छों में , 6-14 फल एक गुच्छे में आते हैं तथा सीधे ऊपर की ओर लगते हैं पके हुए फल चमकदार लाल रंग ले लेते है।इसकी औसत पैदावार 90-100 क्विंटल, हरी मिर्च के लिए तथा 20 क्विंटल प्रति हेक्टेयर, सूखी मिर्च के लिए होती है. यह किस्म मरोडिया, लीफ कर्लद्ध और मौजेक रोगों के लिए प्रतिरोधी भी है।
उत्तम मिट्टी तथा खेती की तैयारी
मिर्च लगभग सभी प्रकार की मिट्टियों में उगाई जा सकती है। लेकिन अच्छी जल निकास वाली कार्बिनक तत्वों से युक्त दुमट मिट्टी इसके लिए सर्वोत्तम मानी जाती हैं। जिन क्षेत्रो मे फसल काल छोटा है, वहां बलुई तथा बलुई दोमट मिट्टी को प्राथमिकता दी जाती है।यदि मिर्च की खेती बरसात मे फसल के लिये की जाती है तो इसके लिए भारी तथा अच्छी जल निकासी वाली मिट्टी होनी चाहिए।
खेत तैयार करते समय पांच-छ: बार जुताई करके पाटा लगा कर मिट्टी को भुर-भूरी तथा खेत समतल कर लीया जाता है।
खेत तैयार करते समय पांच-छ: बार जुताई करके पाटा लगा कर मिट्टी को भुर-भूरी तथा खेत समतल कर लीया जाता है।
बीज की मात्रा
एक से डेढ़ किलोग्राम अच्छी मिर्च का बीज लगभग एक हेक्टेयर में रोपने लायक पर्याप्त पौध बनाने के लिए काफी होता है.
पौध तैयार करना
मिर्च की पौध भी बैंगन व टमाटर की तरह ही तैयारी की जाती है।पौध के लिए मिट्टी हल्की , भुरभुरी व पानी को जल्दी सोखने वाली होनी चाहिए।मिट्टी मे पर्याप्त मात्र में पोषक तत्व भी होने चाहिये । पौध के लिए पर्याप्त मात्र में धूप का आना भी जरूरी है। पौध को पाले से बचाने के लिए पानी का अच्छा प्रबन्ध होना चाहिए।क्यारी की लम्बाई 10-15 फुट तथा चौडाई 2.3-3 फुट से अधिक नहीं होनी चाहिए क्योंकि अधिक बडी क्यारियो मे निराई व अन्य कार्यो में कठिनाई आती है। पौध की उंचाई छह इंच या आधा फीट रखनी चाहिए। बीज की बुआई कतारों में करें. कतारों का फासला पांच-सात सेंटीमीटर रखा जाता है। पौध लगभग छह सप्ताह में तैयार हो जाती है.
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पौध मे लगने वाले रोग तथा उपचार
पौध मे लगने वाले रोग तथा उपचार
मिर्च की पौध मे लगने वाले प्रमुख रोग इस प्रकार है।
आर्द्रगलन रोग:
यह रोग अधिक्तर मिर्च की पौध में ही आता है। इस रोग में सतह , ज़मीन के पास द्धसे हुआ तना गलने लगता है तथा पौध मर जाती है. इस रोग से बचाने के लिए बुआई से पहले बीज का उपचार फफंदूनाशक दवा कैप्टान दो ग्राम प्रति किलोग्राम बीज की दर से करना चाहिए. इसके अलावा कैप्टान दो ग्राम प्रति लीटर पानी में घोल बनाकर सप्ताह में एक बार नर्सरी में छिड़काव किया जाना चाहिए।
यह रोग अधिक्तर मिर्च की पौध में ही आता है। इस रोग में सतह , ज़मीन के पास द्धसे हुआ तना गलने लगता है तथा पौध मर जाती है. इस रोग से बचाने के लिए बुआई से पहले बीज का उपचार फफंदूनाशक दवा कैप्टान दो ग्राम प्रति किलोग्राम बीज की दर से करना चाहिए. इसके अलावा कैप्टान दो ग्राम प्रति लीटर पानी में घोल बनाकर सप्ताह में एक बार नर्सरी में छिड़काव किया जाना चाहिए।
एन्थ्रेक्नोज रोग:
इस रोग में पौध की पित्तयों और फलों में विशेष आकार के गहरे, भूरे और काले रंग के घब्बे पडते है. इसके रोग के प्रभाव से पैदावार बहुत घट जाती है इसके बचाव के लिए वीर एम-45 या बाविस्टन नामक दवा दो ग्राम प्रति लीटर पानी में घोल बनाकर छिड़काव करना चाहिए।
इस रोग में पौध की पित्तयों और फलों में विशेष आकार के गहरे, भूरे और काले रंग के घब्बे पडते है. इसके रोग के प्रभाव से पैदावार बहुत घट जाती है इसके बचाव के लिए वीर एम-45 या बाविस्टन नामक दवा दो ग्राम प्रति लीटर पानी में घोल बनाकर छिड़काव करना चाहिए।
मरोडिया लीफ कर्ल रोग:
यह मिर्च मे लगने वाली एक भंयकर बीमारी है। यह रोग बरसात की फसल में अधिक लगता है। रोग की शुरूअात में पत्ते मुरझा जाते है तथा पौधे की वृद्धि रुक जाती है। अगर इस पर समय रहते नियंत्रण नही किया जाता हे तो ये रोग मिर्च की पैदावार को भारी नकुसान पहुंचाता है। यह एक विषाणु रोग है जिसका कोई दवा द्धारा नित्रंयण नहीं किया जा सकता है। यह रोग विषाणु, सफेद मक्खी से फैलता है। इसलिए इसका नियंत्रण भी सफेद मक्खी से छुटकारा पा कर ही किया जा सकता है। इसके नियंत्रण के लिए रोगयुक्त पौधों को उखाड कर नष्ट कर देना चाहिये तथा 15 दिन के अतंराल में कीटनाशक रोगर या मैटासिस्टाक्स दो मिलीलीटर प्रति ली की दर से छिडकाव करें।
इस रोग की प्रतिरोधी किस्में जैसे-पूसा ज्वाला, पूसा सदाबाहर और पन्त सी-1 को लगाना चाहिए।
यह मिर्च मे लगने वाली एक भंयकर बीमारी है। यह रोग बरसात की फसल में अधिक लगता है। रोग की शुरूअात में पत्ते मुरझा जाते है तथा पौधे की वृद्धि रुक जाती है। अगर इस पर समय रहते नियंत्रण नही किया जाता हे तो ये रोग मिर्च की पैदावार को भारी नकुसान पहुंचाता है। यह एक विषाणु रोग है जिसका कोई दवा द्धारा नित्रंयण नहीं किया जा सकता है। यह रोग विषाणु, सफेद मक्खी से फैलता है। इसलिए इसका नियंत्रण भी सफेद मक्खी से छुटकारा पा कर ही किया जा सकता है। इसके नियंत्रण के लिए रोगयुक्त पौधों को उखाड कर नष्ट कर देना चाहिये तथा 15 दिन के अतंराल में कीटनाशक रोगर या मैटासिस्टाक्स दो मिलीलीटर प्रति ली की दर से छिडकाव करें।
इस रोग की प्रतिरोधी किस्में जैसे-पूसा ज्वाला, पूसा सदाबाहर और पन्त सी-1 को लगाना चाहिए।
मौजेक रोग:
इस रोग में हल्के पीले रंग के घब्बे पत्तों पर पड जाते है। बाद में पित्तयाँ पूरी तरह से पीली पड जाती है. तथा पौधे की वृद्धि रुक जाती है। यह रोग भी एक विषाणु जनित रोग हे जिसका नियंत्रण मरोडिया रोग की तरह ही किया जाता है।
इस रोग में हल्के पीले रंग के घब्बे पत्तों पर पड जाते है। बाद में पित्तयाँ पूरी तरह से पीली पड जाती है. तथा पौधे की वृद्धि रुक जाती है। यह रोग भी एक विषाणु जनित रोग हे जिसका नियंत्रण मरोडिया रोग की तरह ही किया जाता है।
थ्रिप्स एवं एफिड:
ये कीट होते हे जो पत्तियों से रस चूसते है।
इन की रोकथाम के लिए रोगर या मैटासिस्टाक्स दो मिली लीटर प्रति लीटर पानी में घोल बनाकर फसल पर छिड़काव करना चाहिये।
ये कीट होते हे जो पत्तियों से रस चूसते है।
इन की रोकथाम के लिए रोगर या मैटासिस्टाक्स दो मिली लीटर प्रति लीटर पानी में घोल बनाकर फसल पर छिड़काव करना चाहिये।
पौध की रोपाई
मैदानी और पहाड़ी ,दोनो ही इलाकों में मिर्च बोने के लिए सर्वोतम समय अप्रैल-जून तक का होता है। बड़े फलों वाली किस्में मैदानो में अगस्त से सितम्बर तक या उससे पूर्व जून-जुलाई में भी रोपी जा सकती है. उत्तर भारत में जहां सिंचाई की सुविधाएं उपलब्ध हैं, मिर्च का बीज मानसून आने से लगभग छह सप्ताह पूर्व बोया जता है और मानसून आने के साथ-साथ पौध की खेतों में रोपिई कर दी जाती है। इसके अलावा दूसरी फसल के लिए बुआई नवम्बर-दिसम्बर में की जाती है और फसल मार्च से मई तक ली जाती है।
निराई-गुड़ाई तथा खरपतवार नियन्त्रण
पौधों की वृद्धि की आरिम्भक अवस्था में खरपतवारों पर नियंत्रण पाने के लिए दो से तीन बार निराई करना आवश्य होता है।
सिंचाई
पहली सिंचाई पौध रोपई करने के तुरंत बाद की जाती है। इसके बाद गर्म मौसम में हर पांच-सात दिन तथा सर्दी में 10-12 दिनों के अन्तर पर फसल की सींचाई करनी चाहिये।
खाद एवं उर्वरक
गोबर की सडी हुई खाद लगभग 300-400 क्विंटल जुताई के समय ही मिट्टी में मिला देनी चाहिए। रोपाई से पहले 150 किलोग्राम यूरिया ,175 किलोग्राम सिंगल सुपर फॉस्फेट तथा 100 किलोग्राम म्यूरिएट ऑफ पोटाश तथा 150 किलोग्राम यूरिया बाद में लगाना उचित माना जाता है। यूरिया उर्वरक फूल आने से पहले अवश्य दे देना चाहिए।
आलू की उन्नत खेती कैसे करे ।
गाजर की उन्नत खेती कैसे करे? Kisan Help Room
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