Sunday, July 31, 2016

ढाई लाख की नौकरी छोड़ कर शुरू की खेती: आज एक करोड का र्टन ओवर है।




जहॉ एक तरफ किसानों का खेती से मोह भंग होता जा रहा है वही जिले के छोटे से गांव गुराडिया जोगा के एक एमटेक इंजीनियर ने ढाई लाख रुपए की नौकरी छोड़कर खेती को अपनाया है।
23 वर्षीय के कमल पाटीदार का हमेशा अपने गांव की मिट्टी की तरफ ही मन लगा रहा है।
कमल पाटीदार कुछ साल पहले नौकरी छोड़ कर अपने गांव वापस आया है गांव में आकर एक लाख रु कर्ज़ लेकर खेती करनी शुरू थी और धीरे-धीरे सफलता की सीढ़ियां चढता चला गया और आज कमल पाटीदार पूरी तरह से आधुनिक खेती कर रहे है।
उन्होंने अपने ही गांव में श्री जी नामक एक नर्सरी की स्थापना की आस नर्सरी का टर्न अवर 1 करोड रुपए सालाना है।

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कमल पाटीदार में 2011 से पहले चंडीगढ़ से नौकरी छोड़कर साथ बीघा खेत पर अपनी नर्सरी की शुरुआत की थी। शुरू में घर वालों ने उनके नौकरी छोड़ने का विरोध भी किया था, लेकिन कमल ने हार नहीं मानी और इसको एक चैलेंज के रूप में स्वीकार किया। उनका मानना है कि खेती में अगर कुछ नया किया जाए तो अच्छा मुनाफा कमाया जा सकता है।
कमल पाटीदार द्वारा पूरे क्षेत्र में पहली बार नर्सरी में नेट तकनीकों का प्रयोग किया गया।

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उन्होंने अपनी नर्सरी में सीडलिंग ट्रे और कोकोपिट में 50 हजार पौधे मिर्च, टमाटर, गोभी, बैंगन, खीरा,और करेला आदि के तैयार किये। जब किसानो ने सीडलिंग  ट्रे और कोकोपिट मे तैयार पौधों के परिणाम अच्छे देखे तो यहां से खरीदारी करनी शुरू कर दी । कमल पाटीदार के ग्राहक धीरे-धीरे बढ़ते दे गए तो उनहोने दूसरे साल 5 लाख, तीसरे साल 10 लाख, चौथे साल 20 लाख, और इस वक्त उनहोने 30 लाख पौधे तैयार किए। आज हालात यह है कि आसपास के ग्रामीण क्षेत्रों के ही नहीं बल्कि कोटा, मंदसौर, रावतभाटा, उज्जैन, शाहजहांपुर तक के किसान कमल की नर्सरी से पौध लेने आते हैं।



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Thursday, July 28, 2016

आलू की उन्नत खेती / Kisan Help Room


आलू भारत की सबसे महत्वफपूर्ण फसल है। तमिलनाडु एवं केरल को छोडकर आलू भारत के सभी क्षेत्रो में उगाया जाता है।भारत मे आलू की खेती के लिए उत्तर प्रदेश, पच्छिम बंगाल,बिहार आदि प्रमुख राज्य है।
किसान आज से लगभग 7000 साल पहले से आलू उगा रहे हैं।

इसे सब्जियों का राजा कहा जाता है  भारत में शायद ही कोई ऐसा रसोई घर होगा जहाँ पर आलू ना दिखे । इसकी मसालेदार तरकारी, पकौड़ी,  चॉट, पापड चिप्स जैसे स्वादिष्ट पकवानो के अलावा अंकल चिप्स, भुजिया और कुरकुरे भी हर लोगो के मन को भा रहे हैं। प्रोटीन, स्टार्च, विटामिन सी और के  अलावा आलू में अमीनो अम्ल जैसे ट्रिप्टोफेन, ल्यूसीन, आइसोल्यूसीन आदि काफी मात्रा में पाये जाते है जो शरीर के विकास के लिए आवश्यक है।  किसान आज से लगभग 7000 साल पहले से आलू उगा रहे हैं। 
आलू की खेती के लिए उत्तम जलवायु 
आलू के लिए छोटे दिनों कि अवस्था आवश्यक होती है भारत के बिभिन्न भागो में उचित जलवायु कि उपलब्धता के अनुसार किसी न किसी भाग में सारे साल आलू कि खेती कि जाती बढवार के समय आलू को मध्यिम शीत की आवश्यवकता होती है। मैदानी क्षेत्रो  में बहुधा शीतकाल (रबी) में आलू की खेती प्रचलित है । आलू की वृद्धि एवं विकास के लिए तापक्रम 15- 25 डि से  के मध्य होना चाहिए। इसके अंकुरण के लिए लगभग 25 डि से. संवर्धन के लिए 20 डि से. और कन्द विकास के लिए 17 से 19 डि से. तापक्रम की आवश्यकता होती है, उच्चतर तापक्रम (30 डि से.) होने पर आलू  विकास की प्रक्रिया प्रभावित होती है अक्टूबर से मार्च तक,  लम्बी रात्रि तथा चमकीले छोटे दिन आलू बनने और बढ़ने के लिए अच्छे होते है। बादलो से भरे दिन, वर्षा तथा उच्च आर्द्रता वाला मौसम आलू की फसल में फफूँद व बैक्टीरिया जनित रोगों को फैलाने मे सहायक होते है।
आलू की फसल के लिए खेत का चुनाव
आलू को क्षारीय मृदा के अलावा सभी प्रकार के मृदाओ में उगाया जा सकता है परन्तु जीवांश युक्त रेतीली दोमट या सिल्टी दोमट भूमि इसकी खेती के लिए सर्वोत्तम मानी गई है। भूमि में उचित जल निकास का प्रबंध करना अति आवश्यक है। आलू की खेती के लिए मिटटी का P H मान 5.2 से 6.5 अत्यंत उपयुक्त पाया गया है। जैसे-जैसे यह P H मान ऊपर बढ़ता जाता है दशाएं अच्छी उपज के लिए प्रतिकूल होती जाती है।
आलू के कंद मिटटी के अन्दर तैयार होते है।इसलिए मिटटी का भुर भूरा होना अति आवश्यक है

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खेत की तैयारी
आलू की फसल के लिये जुताई करके मिट्टी को भुर-भुरा बनाना आवश्यक है।इसके लिए पहली जुताई मिटटी पलट हल से करनी चाहिये।इस के बाद दूसरी और तीसरी जुताई देसी हल या हैरो से करनी चाहिए। यदि खेती में ढेले हो तो इन पर पाटा चलाकर मिटटी को भुर-भुरा बना लेना चाहिए बुवाई के समय भूमि में पर्याप्त नमी का होना आवश्यक है यदि खेत में नमी कि कमी हो तो खेत में पलेवा करके जुताई करनी चाहिए ।
आलू की प्रमुख प्रजातियाँ
आलू की अच्छी किस्मो मे विदेशी और देशी दोनो प्रकार की किस्मे मिलती है।जिनमे कुछ विदेशी किस्मो को भारतीय परिस्थियों के लिए अनुकूल किया गया है इनमे से कुछ के नाम निचे दिये गए है ।
अपटुडेट , क्रेग्स डिफैंस , प्रेसिडेंट आदि .
केन्द्रीय आलू अनुसन्धान शिमला द्वारा बिकसित किस्मे
आलू की नवीनतम किस्मे
कुफरी चिप्सोना -1, कुफरी चिप्सोना -2, कुफरी गिरिराज, कुफरी आनंद आदि है ।
कुफरी चन्द्र मुखी
 80-90 दिन में तैयार  200-250 कुंतल उपज
कुफरी अलंकार
70 दिन में तैयार हो जाती है यह किस्म पछेती अंगमारी रोग के लिए कुछ हद तक प्रतिरोधी है यह प्रति हेक्टेयर 200-250 क्विंटल उपज देती है .
कुफरी बहार 3792 E
90-110 दिन में लम्बे दिन वाली दशा में 100-135 दिन में तैयार 
कुफरी नवताल G 2524
80 -120 दिन तैयार 150-250 क्विंटल/ हे उपज 
कुफरी शीत मान
100-130 दिन में तैयार  250 क्विंटल/ हे उपज 
कुफरी बादशाह
100-120 दिन में तैयार 250-275 क्विंटल/ हे उपज 
कुफरी सिंदूरी
120 से 140 दिन में तैयार 300-400 क्विंटल/ हे उपज 
कुफरी देवा
120-125 दिन में तैयार 300-400 क्विंटल/ हे उपज 
E 4,486
135 दिन में तैयार 250-300 क्विंटल उपज   हरियांणा,उत्तर प्रदेश,बिहार पश्चिम बंगाल गुजरात और मध्य प्रदेश में उगाने के लिए उपयोगी
कुफरी लालिमा
यह शीघ्र तैयार होने वाली किस्म है जो 90-100 दिन में तैयार हो जाती है इसके कंद गोल आँखे कुछ गहरी और छिलका गुलाबी रंग का होता है यह अगेती झुलसा के लिए मध्यम अवरोधी है ।
कुफरी स्वर्ण
110 में दिन में तैयार  उपज 300 क्विंटल/ हे उपज
संकर किस्मे 

कुफरी जवाहर JH 222
 90-110 दिन में तैयार  खेतो में अगेता झुलसा और फोम रोग कि यह प्रति रोधी किस्म है यह 250-300 क्विंटल उपज
JF 5106
उत्तर भारत के मैदानी क्षेत्रो में उगाने के लिए अउपयोगी .75 दिनों की फ़सल   उपज 23-28 टन / 0 हे मिल जाती है 
कुफरी संतुलज J 5857 I
संकर किस्म सिन्धु गंगा मैदानों और पठारी क्षेत्रो में उगाने के लिए   75 दिनों की फ़सल   उपज 23-28 टन / हे उपज 
कुफरी अशोक P 376 J
75 दिनों मेकी फ़सल   उपज 23-28 टन / 0 हे मिल जाती है 
JEX -166 C
 अवधि 90 दिन में तैयार होने वाली किस्म है 30 टन /हे उपज
बीज का चुनाव 
आलू की बुआई करते समय किसानो को आलू के बीज की जानकारी होना अति अवश्यक है। क्यू कि आलू के बीज के आकार और उसकी उपज से प्राप्त लाभ का आपस मे गहरा सम्बंध है।प्राय: बडी माप के बीजों से उपज तो अधिक होती है परन्तु बीज की कीमत अधिक होने से पर्याप्त लाभ नही होता। बहूत छोटी माप का बीज सस्ता होगा परन्तु  रोगाणुयुक्त आलू पैदा होने का खतरा बढ जाता है। प्राय: देखा गया है कि रोगयुक्त फसल में छोटै माप के बीजो का अनुपात अधिक होता है। अत: अच्छी फसल तथा अधिक लाभ के लिए 3 से.मी. से 3.5 से.मी.आकार या 30-40 ग्राम भार के आलूओं को ही बीज के रूप में प्रयोग करना चाहिए। 
आलू मे लगने वाले प्रमुख रोग तथा उपचार
आलू मे लगने वाले प्रमुख रोग तथा इन रोगो से बचाव निम्न प्रकार है।
माहुं या चेंपा (Aphids)
यह गहरे हरे या काले रंग के होते है प्रौढ़ अवस्था में यह दो प्रकार के होते है पंखदार और पंख हिन् इसके अवयस्क और प्रौढ़ दोनों ही पत्तियों और शाखाओं का रस चूसते है अधिक प्रकोप होने पर पत्तियां निचे की ओर मुड जाती है और पीली पड़कर सुख जाती है इसकी पंखदार जाती विषाणु फ़ैलाने में सहायता करती है माहुं कीट एक सर्वव्यापी व बहुभक्षी कीट है। ये रस चूसने वाले कीट की श्रेणी में आते हैं। माइजस परसिकी (Myzus persicae) व एफिस गौसिपी (Aphis gossypii) नामक मांहू आलू की फसल पर प्रत्यक्ष रूप से तो ज्यादा नुकसान नहीं पहुंचाते परंतु ये विषाणुओं को फैलाते हैं। रोग मुक्त बीज आलू उत्पादन में ये कीट प्रमुख बाधक हैं।
रोकथाम के उपाय
हमारे देश के गंगा के मैदानी इलाकों में ही लगभग 90% आलू की खेती की जाती है। इन क्षेत्रों में आलू की फसल माहुं रहित अवधि में करनी चाहिए।
आलू की फसल तथा अन्य सब्जियों की फसल के बीच कम 50 मीटर की दूरी रखें।
खेतों में या आसपास उगे माहुं ग्रसित पौधों, विशेषकर पीले रंग के फूल वाले पौधो को उखाड़ कर नष्ट कर देना चाहिए।
जैसे प्रति हे.100 पत्तियों पर माहुं की संख्या 20 से ज्यादा होने लगे तो फसल के डंठलों को काट दें।
उपचार
देसी गाय का 5 लीटर मट्ठा लेकर उसमे 5 किलो नीम कि पत्ती या 2 किलोग्राम नीम कि खली या 2 किलोग्राम  नीम की पत्त्ती एक बड़े मटके में 40-50 दिन भरकर तक सडा कर - सड़ने के बाद उस मिश्रण में से 5 लीटर मात्रा को 200 लीटर पानी में डालकर अच्छी तरह मिलाकर तर बतर कर प्रति एकड़ छिड़काव करे ।
कुतरा
इस किट कि सुंडिया आलू के पौधों और शाखाओं और उगते हुए कंदों को काट देती है बाद कि अवस्था में इसकी सुंडी आलुओं में छेद कर देती है जिससे कंदों का बाजार भाव कम हो जाता है यह कीट रात में फसल को क्षति पहुंचाती है ।
उपचार
10 लीटर देसी गाय के गोमूत्र में 2 किलो अकौआ की पत्ती 2 किलो नीम की पत्ती 2 किलो बेसरम की पत्ती मिलाकर 10-15 दिन तक सड़ाकर इस मूत्र को आधा शेष बचने तक उबालकर फिर इसके 1 लीटर मिश्रण को 200 लीटर पानी में मिलाकर तर बतर कर पम्प द्वारा प्रति एकड़ छिड़काव करे ।
व्हाईटगर्ब
इसे कुरमुला कि संज्ञा भी दी जाती है जो सफ़ेद या सलेटी रंग की होती है इसका शरीर मुडा हुआ और सर भूरे रंग का होता है यह जमीन के अन्दर रहकर पौधों कि जड़ो को क्षति पहुंचता है इसके अतिरिक्त आलू में छिद्र कर देती है जिसके कारण आलू का बाजार भाव कम हो जाता है ।
उपचार
10 लीटर देसी गाय का गोमूत्र में 2 किलो अकौआ कि पत्ती मिलाकर 10-15 दिन तक सड़ाकर इस मूत्र को आधा शेष बचने तक उबालकर फिर इसके 1 लीटर मिश्रण को 200 लीटर पानी में मिलाकर तर बतर कर पम्प द्वारा प्रति एकड़ छिड़काव करे ।

किसान विनोद सिंह, केले की नर्सरी लगाकर 30 दिन मे कमाते है 5 लाख


एपिलेकना
यह छोटा , पीलापन लिए हुए भूरे रंग का कीट है। इसकी पीठ का भाग उठा हुआ होता है जिस पर काफी बिंदिया पाई जाती है अवयस्क और प्रौढ़ कीट दोनों ही क्षति पहुंचाते है। पौधों कि पत्तियों को कीट तथा इसके बच्चे धीरे धीरे खुरच कर खा जाते है। और पत्तियां सुख जाती है ।
उपचार
10 लीटर देसी गाय का गोमूत्र में 2 किलो अकौआ की पत्ती 2किलो नीम की पत्ती 2किलो बेसरम की पत्ती मिलाकर 10-15 दिन तक सड़ाकर इस मूत्र को आधा शेष बचने तक उबालकर फिर इसके 1 लीटर मिश्रण को 200 लीटर पानी में मिलाकर तर बतर कर पम्प द्वारा प्रति एकड़ छिड़काव करे ।
अगेतीअंगमारी
यह रोग आल्तेरनेरिया सोलेनाई नामक फफूंदी के कारण लगता है उत्तरी भारत में इस रोग का आक्रमण शरद ऋतू के फसल पर नवम्बर में और बसंत कालीन फसल पर फरवरी में होता है यह रोग कंद निर्माण से पहले ही लग सकता है। निचे की पत्तियों पर सबसे पहले प्रकोप होता है जंहा से रोग बाद में ऊपर कि ओर बढ़ता है पत्तियों पर छोट छोटे गोल अंडाकार या कोणीय धब्बे बन जाते है जो भूरे रंग के होते है ये धब्बे सूखे एवं चटकने वाले होते है। बाद में धब्बे के आकार में वृद्धि हो जाती है। जो पूरी पत्ती को ढक लेती है जिस से रोगी पौधा मर जाता है ।
उपचार
10 लीटर देसी गाय के मूत्र में 2 किलो अकौआ की पत्ती 2 किलो नीम की पत्ती 2 किलो बेसरम की पत्ती मिलाकर 10-15 दिन तक सड़ाकर इस मूत्र को आधा शेष बचने तक उबालकर फिर इसके 1 लीटर मिश्रण को 200 लीटर पानी में मिलाकर तर बतर कर पम्प द्वारा प्रति एकड़ छिड़काव करे ।
पछेती अंगमारी
यह रोग फाइटो पथोरा इन्फैस्तैन्स नामक फफूंदी के कारण होता है। इस रोग में पत्तियों कि शिराओं , तनो डंठलो पर छोटे भूरे रंग के धब्बे उभर आते है जो बाद में काले पड़ जाते है और पौधे के भूरे भाग गल सड़ जाते है रोकथाम में देरी होने पर आलू के कंद भूरे बैगनी रंग में परवर्तित होने के उपरांत गलने शुरू हो जाते है ।
उपचार
10 लीटर देसी गाय का गोमूत्र में 2 किलो अकौआ की पत्ती 2 किलो नीम की पत्ती 2 किलो बेसरम की पत्ती मिलाकर 10-15 दिन तक सड़ाकर इस मूत्र को आधा शेष बचने तक उबालकर फिर इसके 1 लीटर मिश्रण को 200 लीटर पानी में मिलाकर तर बतर कर पम्प द्वारा प्रति एकड़ छिड़काव करे ।
500 ग्राम लहसुन और 500 ग्राम तीखी चटपटी हरी मिर्चलेकर बारीक़ पीसकर 200 लीटर पानी में घोलकर थोडा सा शैम्पू झाग के लिए मिलाकर प्रति एकड़ तर बतर कर अच्छी तरह छिड़काव ।
काली रुसी ब्लैक स्कर्फ
यह रोग राइजोक्टोनिया सोलेनाई नामक फफूंदी के कारण होता है इस रोग का आक्रमण मैदानी या पर्वतीय क्षेत्र में होता है रोगी कंदों प़र चाकलेटी रंग के उठे हुए धब्बो का निर्माण हो जाता है जो धोने से साफ नहीं होते है है इस फफूंदी का प्रकोप बुवाई के बाद आरम्भ होता है जिससे कंद मर जाते है और पौधे दूर दूर दिखाई पड़ते है ।
उपचार
10 लीटर देसी गाय का गोमूत्र में 2 किलो अकौआ की पत्ती 2 किलो नीम की पत्ती 2 किलो बेसरम की पत्ती मिलाकर 10-15 दिन तक सड़ाकर इस मूत्र को आधा शेष बचने तक उबालकर फिर इसके 1 लीटर मिश्रण को 200 लीटर पानी में मिलाकर तर बतर कर पम्प द्वारा प्रति एकड़ छिड़काव करे    

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मिर्ची की उन्नत खेती. Kisan help room


मिर्च प्राय: सभी प्रकार के खाने मे प्रयोग की जाती है।
वर्षभर बाजार मे मांग बनी रहने के कारण मिर्च की खेती किसानो के लिए बहुत ही लाभदायक है।
मिर्च भारत के अनेक राज्यों में पहाड़ी व मैदानी क्षेत्रों में फल के लिए उगायी जाती है.  मिर्च का तीखापन  ओलियोरेजिल कैप्सिसिन नामक एक उड़नशील एल्केलॉइड पदार्थ के कारण तथा उग्रता कैप्साइिसन नामक एक रवेदार उग्र पदार्थ के कारण होती है।  देश में मिर्च का प्रयोग हरी मिर्च की तरह एवं मसाले के रूप में भरपूर मात्रा मे किया जाता है।  इसे सब्जियों और चटनियों में डाला जाता है।

मिर्च के लिए उपयुक्त जलवायु
मिर्च की खेती के लिए गर्म और आर्द्र जलवायु उपयुक्त होती है। लेकिन इसके फलों के पकते समय मौसम का शुष्क होना आवश्यक है। मिर्च को गर्म मौसम की फसल होने के कारण उस समय तक नहीं उगाया जा सकता, जब तक कि मिट्टी का तापमान बढ न जाए तथा पाले का प्रकोप खत्म न हो गया हो। बीजों का अच्छा अंकुरण 18-30 डि सेंटी ग्रेड तापामन पर होता है।  फूल तथा फल लगते समय मिट्टी मे नमी की कमी नही होनी चाहिये। अगर नमी की कमी हो जाती है, तो फल व फूल गिरने लगते हैं।  मिर्च के फूल व फल  लगने के लिए सबसे उपयुक्त तापमान 25-30 डिग्री सेंटी ग्रेड है। फलते समय ओस का गिरना या फिर तेज वर्षा होना फसल के लिए नुकसानदाक होता है।  क्योंकि इसके कारण फूल व छोटे फल टूट कर गिर जाते हैं।
मिर्च की उन्नत किसमे निम्न प्रकार है।
पूसा ज्वाला :
इसके पौधे छोटे आकार के और पत्तियां चौड़ी होती हैं.  फल 9-10 सेंटीमीटर लंबे ,पतले, हल्के हरे रंग के होते हैं जो पकने पर हल्के लाल हो जाते हैं.  इसकी औसम उपज 75-80 क्विंटल  प्रति  हेक्टेयर , हरी मिर्च के लिए तथा 18-20 क्विंटल  प्रति  हेक्टेयर सूखी मिर्च के लिए होती है।
पूसा सदाबहार :
पूसा सदाबहार के पौधे सीधे व लम्बे ; 60 - 80 सेंटीमीटर होते हैं.  फल 6-8 सें मी. लंबे, गुच्छों में , 6-14 फल  एक  गुच्छे में आते हैं तथा सीधे ऊपर की ओर लगते हैं पके हुए फल चमकदार लाल रंग ले लेते है।इसकी औसत पैदावार 90-100 क्विंटल, हरी मिर्च के लिए तथा 20 क्विंटल प्रति  हेक्टेयर, सूखी मिर्च के लिए होती है.  यह किस्म मरोडिया, लीफ कर्लद्ध और मौजेक रोगों के लिए प्रतिरोधी भी है।
उत्तम मिट्टी तथा खेती की तैयारी
मिर्च लगभग सभी प्रकार की मिट्टियों में उगाई जा सकती है। लेकिन अच्छी जल निकास वाली कार्बिनक तत्वों से युक्त दुमट मिट्टी इसके लिए सर्वोत्तम मानी जाती हैं। जिन क्षेत्रो मे फसल काल छोटा है, वहां बलुई तथा बलुई दोमट मिट्टी को प्राथमिकता दी जाती है।यदि मिर्च की खेती बरसात मे फसल के लिये की जाती है तो इसके लिए भारी तथा अच्छी जल निकासी वाली मिट्टी होनी चाहिए।
खेत तैयार करते समय पांच-छ: बार जुताई करके पाटा लगा कर मिट्टी को भुर-भूरी तथा खेत समतल कर लीया जाता है।  
बीज की मात्रा
एक से डेढ़ किलोग्राम अच्छी मिर्च का बीज लगभग एक हेक्टेयर में रोपने लायक पर्याप्त पौध बनाने के लिए काफी होता है.
पौध तैयार करना
मिर्च की पौध भी बैंगन व टमाटर की तरह ही तैयारी की जाती है।पौध के लिए मिट्टी हल्की , भुरभुरी व पानी को जल्दी सोखने वाली होनी चाहिए।मिट्टी मे पर्याप्त मात्र में पोषक तत्व भी होने चाहिये । पौध के लिए पर्याप्त मात्र में धूप का आना भी जरूरी है।  पौध को पाले से बचाने के लिए पानी का अच्छा प्रबन्ध होना चाहिए।क्यारी की लम्बाई 10-15 फुट तथा चौडाई 2.3-3 फुट से अधिक नहीं होनी चाहिए क्योंकि अधिक बडी क्यारियो मे निराई व अन्य कार्यो में कठिनाई आती है। पौध की उंचाई छह इंच या आधा फीट रखनी चाहिए।  बीज की बुआई कतारों में करें. कतारों का फासला पांच-सात सेंटीमीटर रखा जाता है।  पौध लगभग छह सप्ताह में तैयार हो जाती है.
पर
पौध मे लगने वाले रोग तथा उपचार
मिर्च की पौध मे लगने वाले प्रमुख रोग इस प्रकार है।
आर्द्रगलन रोग:
 यह रोग अधिक्तर मिर्च की पौध में ही आता है। इस रोग में सतह , ज़मीन के पास द्धसे हुआ तना गलने लगता है तथा पौध मर जाती है.  इस रोग से बचाने के लिए बुआई से पहले बीज का उपचार फफंदूनाशक दवा कैप्टान दो ग्राम प्रति किलोग्राम बीज की दर से करना चाहिए.  इसके अलावा कैप्टान दो ग्राम प्रति लीटर पानी में घोल बनाकर सप्ताह में एक बार नर्सरी में छिड़काव किया जाना चाहिए।
एन्थ्रेक्नोज रोग:
इस रोग में पौध की पित्तयों और फलों में विशेष आकार के गहरे, भूरे और काले रंग के घब्बे पडते है.  इसके रोग के प्रभाव से पैदावार बहुत घट जाती है इसके बचाव के लिए वीर एम-45 या बाविस्टन नामक दवा दो ग्राम प्रति लीटर पानी में घोल बनाकर छिड़काव  करना चाहिए।
मरोडिया लीफ कर्ल रोग:
यह मिर्च मे लगने वाली एक भंयकर बीमारी है।  यह रोग बरसात की फसल में अधिक लगता है। रोग की शुरूअात में पत्ते मुरझा जाते है  तथा पौधे की वृद्धि रुक जाती है।  अगर इस पर समय रहते नियंत्रण नही किया जाता हे तो ये रोग मिर्च की पैदावार को भारी नकुसान पहुंचाता है। यह एक विषाणु रोग है जिसका कोई दवा द्धारा नित्रंयण नहीं किया जा सकता है। यह रोग विषाणु, सफेद मक्खी से फैलता है। इसलिए इसका नियंत्रण भी सफेद मक्खी से छुटकारा पा कर ही किया जा सकता है। इसके नियंत्रण के लिए रोगयुक्त पौधों को उखाड कर नष्ट कर देना चाहिये तथा 15 दिन के अतंराल में कीटनाशक रोगर या मैटासिस्टाक्स दो मिलीलीटर प्रति ली की दर से छिडकाव करें।
इस रोग की प्रतिरोधी किस्में जैसे-पूसा ज्वाला, पूसा सदाबाहर और पन्त सी-1 को लगाना चाहिए।
मौजेक रोग:
इस रोग में हल्के पीले रंग के घब्बे पत्तों पर पड जाते है। बाद में पित्तयाँ पूरी तरह से पीली पड जाती है. तथा पौधे की वृद्धि रुक जाती है।  यह रोग भी एक विषाणु जनित रोग हे जिसका नियंत्रण मरोडिया रोग की तरह ही किया जाता है।
थ्रिप्स एवं एफिड:
ये कीट होते हे जो पत्तियों से रस चूसते है।
इन की रोकथाम के लिए रोगर या मैटासिस्टाक्स दो मिली लीटर  प्रति लीटर पानी में घोल बनाकर फसल पर छिड़काव करना चाहिये।
पौध की रोपाई
मैदानी और पहाड़ी ,दोनो ही इलाकों में मिर्च बोने के लिए सर्वोतम समय अप्रैल-जून तक का होता है। बड़े फलों वाली किस्में मैदानो में अगस्त से सितम्बर तक या उससे पूर्व जून-जुलाई में भी रोपी जा सकती है. उत्तर भारत में जहां सिंचाई की सुविधाएं उपलब्ध हैं, मिर्च का बीज मानसून आने से लगभग छह सप्ताह पूर्व बोया जता है और मानसून आने के साथ-साथ पौध की खेतों में रोपिई कर दी जाती है।  इसके अलावा दूसरी फसल के लिए बुआई नवम्बर-दिसम्बर में की जाती है और फसल मार्च से मई तक ली जाती है।
निराई-गुड़ाई तथा खरपतवार नियन्त्रण
पौधों की वृद्धि की आरिम्भक अवस्था में खरपतवारों पर नियंत्रण पाने के लिए दो से तीन बार निराई करना आवश्य होता है। 
सिंचाई
पहली सिंचाई पौध रोपई करने के तुरंत बाद की जाती है। इसके बाद गर्म मौसम में हर पांच-सात दिन तथा सर्दी में 10-12 दिनों के अन्तर पर फसल की सींचाई करनी चाहिये।
खाद एवं उर्वरक
गोबर की सडी हुई खाद लगभग 300-400 क्विंटल जुताई के समय ही मिट्टी में मिला देनी चाहिए। रोपाई से पहले 150 किलोग्राम यूरिया ,175 किलोग्राम सिंगल सुपर फॉस्फेट तथा 100 किलोग्राम म्यूरिएट ऑफ पोटाश तथा 150 किलोग्राम यूरिया बाद में लगाना उचित माना जाता है।  यूरिया उर्वरक फूल आने से पहले अवश्य दे देना चाहिए।


आलू की उन्नत खेती कैसे करे ।

गाजर की उन्नत खेती कैसे करे? Kisan Help Room

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Sunday, July 24, 2016

अब सागवान 20 सालो मे नही 10 साल मे होजाएगा तैयार:किसानो के लिये होगा लाभदायक

मजबूत और चमकदार लक्डी (wood) के लिये सबसे अलग पहचान रखने पेड सागवान जो लगभग 20 से 25 सालो में पूर्ण रूप से विकसित होता था अब वही सागवान महज 10 सालों में ही पूर्ण रूप से तैयार हो जाएगा।

प्राकृतिक रूप से बढ़ने वाले पेड़ों को समय से पूर्व विकसित करने की तकनीक झारखंड के वन विभाग ने इजाद करली है।इसी तकनीक की सहायता से सागवान भी 10 साल तैयार हौगा। इस तकनीक का नाम हे रूट ट्रेनर।झारखंड वन विभाग की नर्सरी में सागवान के अलावा शीशम, गम्हार, आंवला और एकेसिया पर इसका सफल प्रयोग किया जा चुका है। इससे सागवान, शीशम जैसे पेड़ लगाने वाले किसानो भाईयो को बहुत लाभ मिलेगा। इसके साथ ही वृक्षारोपण को भी बढ़ावा मिलेगा।

रूट ट्रेनर क्या है?

24 लाख की नौकरी छोडकर ईंजीनियर ने अपनाई खेती:अबखेती से साल मे कमाता है 2 करोड: उन्नत किसान सचिन काले

किसान कम खर्च मे घर पर ही तैयार करे अच्छी किस्म की वर्मी कम्पोस्ट। जाने कैसे?



रूट ट्रेनर काले रंग के प्लास्टिक की कड़ी टैपरिंगवाली ग्लासनुमा संरचना है। जो एक भी हो सकती है और ट्रे नुमा फ्रेम में समान दूरी पर ढली हुई बहत सी एक साथ भी। प्रत्येक संरचना में नीचे की ओर छिद्र होते हैं। इन्हें जमीन से ऊपर स्टैंड पर रखा जाता है।
रूट ट्रेनर कैसे कार्य करता है?
आम तौर पर पौधों की तैयारी पॉलिथीन बैग में की जाती है. पॉलिथीन बैग में पौधों की तैयारी की सबसे बड़ी समस्या यह है कि उसमें पौधों की जड़ें घुमावदार हो जाती है। इससे उनकी उत्तरजीवता पर खराब प्रभाव पड़ा है। जबकि रूट ट्रेनर में ऐसा नहीं होता है। पौधे की मूसला जड़ जब विकसित होकर रूट ट्रेनर के पेंदे पर स्थित छिद्र के पास पहुंचती है तो रूट ट्रेनर के जमीन के ऊपर स्टैंड पर रखे होने के कारण हवा के संपर्क में आती हैं। इससे मूसला जड़ों की वृद्धि स्वाभाविक रूप से रूक जाती है। ऐसा होने से मूसला जड़ में घुमाव की समस्या खत्म हो जाती है और उसमें प्रतिस्थानी जड़ें विकसित होने लगती हैं। 60 से 90 दिनों में रूट ट्रेनर में तैयार पौधे जमीन में गढ्डा कर रोपाई के लिए तैयार हो जाते हा।
इस तकनीक से बंजर भूमि में भी वृक्षारोपण होगा।
झारखंड के कुल भू-भाग 79.14 हजार वर्ग किमी की 20 प्रतिशत भूमि बंजर है. हालांकि वन भूमि के लिहाज से झारखंड काफी समृद्ध है. यहां 29 फीसद भू-भाग में जंगल है लेकिन गैर वन भूमि में पेड़ नहीं के बराबर हैं. वन विभाग की योजना गैर वानिकी क्षेत्र और बंजर भूमि में अधिक से अधिक वृक्षारोपण की है.

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किसानो के लिये आय का अच्छा स्रोत भी होगी यह तकनीक

भारत सरकार के वन एवं पर्यावरण मंत्रालय द्वारा गठित कमेटी ने गैर वन क्षेत्र में पेड़ लगाने और ट्रांजिट रूल में परिवर्तन की वकालत की है. यदि कमेटी के सुझावों को भारत सरकार मान लेती है तो निजी जमीन में फसल की तरह पेड़ लगाए और काट कर बेचे जा सकते हैं। ऐसे में वन विभाग की यह तकनीक किसानो के लिये बहुत उपयोगी साबित होगी। इस तकनीक से कम समय में पेड़ तैयार करके और उन्हें बेचकर किसान अधिक लाभ अर्जित कर सकेंगे।


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टमाटर की उन्नत खेती कैसे करे?
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Friday, July 22, 2016

टमाटर की उन्नत खेती कैसे करे?



किसान भाईयो इस लेख मे हम आपको टमाटर की उन्नत खेती के बारे मे जानकारी देगें। जिस्से हमारे किसान भाई वैज्ञानिक तरीके से टमाटर की फसल उगाकर अधिक से अधिक लाभ ले सके।
टमाटर →  किसान भाईयो टमाटर की सामान्य तथा हाइब्रिड दोनो प्रकार की किस्में होती है। सामान्यत: टमाटर की मुक्त परागीत किस्मो के फल के छिलके पतले होते है। और उनमें जूस की मात्रा अधिक होती है।तथा फल में खटास अच्छा होती है। जबकि दूसरी शंकर किस्मो के फल सामान्य आकार के व लाल रंग के होते है तथ इनके फलो का छिलका अधिक मोटा होता है,शंकर किस्म के फलो को कमरे के तापमान पर कई दिन तक बिना खराब हुए रखा जा सकता है।
बुवाई का समय
किसान भाईयो उत्तर भारत के मैदानी क्षेत्रो में टमाटर की मुख्य रूप से दो फसल ली जाती है।एक बरसात की फसल जिसकी जून जुलाई में पौध तैयार करके जुलाई अगस्त के महीने में रोपाई की जाती है।  इस फसल का फल अक्टूबर व नवम्बर में तैयार हो जाता है।
जबकि दूसरी फसल ठण्डी मे अक्टूबर माह मे पैध तैय्यार करके रोपाई की जाती है।
ठण्डी मे ली जाने वाली फसल के लिये किसान भाईयो टमाटर की शंकर किस्मो को लगाना अधिक  लाभ प्रद है।इस फसल मे टमाटर का फल जनवरी से लेकर अप्रैल तक उपलब्ध रहता है।और मौसम के कारण टमाटर का फल खराब होने की आशंका भी कम हौती है।
किसान भाईयो टमामटर ऐसी फसल हे जिसको हर प्रकार की मिट्टी में उगाया जा सकता हैं।फिर भी अच्छे जल निकास वाली मिट्टी जिसका पीएच मान 06 से 07 हो वह टमाटर के लिये उपयुक्त मानी जाती है।

खेत की अच्छे से 03 से 04 बार गहरी जुताई करके खेत को समतल कर लेना चाहिये।
खाद तथा उर्वरक
किसान भाईयो खाद किसी भी फसल के लिये महत्वपूर्ण तत्व हे अत: इसकी सही मात्रा सही समय पर ही देनी चाहिये।
टमाटर की अच्छी फसल के लिये खेत की अन्तिम जुताई करते समय 30 टन गोबर की सडी खाद प्रति हेक्टेयर के हिसाब से खेत में अच्छी तरह मिला देना चाहिये।
इसके अतिरिक्त टमाटर की फसल के लिये 150 किलोग्राम नत्रजन ,60 किलोग्राम फासफोरस तथा 60 किलोग्राम पोटाश प्रति किलोग्राम की दर से आवश्यकता पडती है।
टमाटर की पौध तैयार करना
पौध तैयार करने के लिये जमीन की सतह से 15 से 20 सेन्टी मीटर ऊचाई की क्यारी बनाकर इसमे बीज की बुवाई करते है। बीज की बुवाई करते समय बीज को मिट्टी मे ढेड से दो सेन्टीमीटर गहराई मे लगाते है तथा पक्तियों में बुवाई करते है। बीज की बुवाई के बाद क्यारी की ऊपरी सतह पर सडी हुई गोबर की खाद की पतली परत डालते है। तेज धूप, बरसात व ठंड से बचाने के लिए घास फूस से क्यारी को ढक देते है।  पूर्ण रूप से बीज अंकुरित हो जाने पर घास फूस हटा देना चाहिये।

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पौध की रोपाई
जब पौध पांच से छः पत्ती की हो जाए तो इसे 60 सेन्टी मीटर चाौडी तथा जमीन की सतह से 20 सेन्टी मीटर ऊंची उठी हुई क्यारिया बनाकर इन पर रोपाई करते है। क्यारियो के दोनो तरफ 20 सेन्टी मीटर चैडी नालिया बनाते है। क्यारियो पर पौध की रोपाई करते समय पौधे से पौधे की दूरी 30 सेन्टी मीटर रखते है।
खेत की सिचांई
किसान भाईयो टमाटर की फसल के लिये पहली सिचांई पौध रोपई के बाद की जाती है। इसके बाद फसल की आवश्यकता अनुसार समय-समय पर सिचांई करते रहना चाहिये।
खर पतवार नियन्त्रण तथा निराई-गुडाई
टमाटर क् अच्छे उत्पादन के लिए समय-समय पर निराई-गुडाई करना चाहिये।
पहली निराई पौध रोपण के 20 दिन बाद करे। तथा दूसरी निराई पौध रोपण के 40 दिन बाद करना चाहिये।
फसल सुरक्षा तथा रोग से बचाव
किसान भाईये टमाटर की फसल मे लगने वाले रोग तथा उनका बचाव निम्न प्रकार है।
आद्र गलन ‘‘ डैम्पिंक आफ → आद्र गलन टमाटर की फसल का प्रमुख रोग है। इसके बचाव के लिए बीज को बुवाई से पूर्व कैपटाम व धीरम से उपचारित करना चाहिये। अगैती झुलसा- कापर आक्सी क्लोराइड की तीन ग्राम मात्रा प्रति लीटर पानी में घोल कर झिडकाव करना चाहिये।
पत्ती मोड विषाणु रोग→ पत्ती मोड विषाणु रोग मे सर्वप्रथम रोग ग्रस्त पौधे को उखाड कर जला देना चाहिये तथा मोनोक्रोटोफास दवा की दो मिली ग्राम मात्रा प्रति लीटर पानी की दर से 15 दिन के अन्तराल पर छिडकाव करना चाहिये।
टमाटर की प्रमुख प्रजातियां
काशी अमृत,काशी अनुपम,पूसा,स्र्वण वैभव,अविनाश-2 ,रूपाली अर्का रक्षक आदि
उपज- 500 से 700 कुन्तल प्रति हेक्टेयर बीज दर- 300 से 450 ग्राम प्रति हेक्टेयर
फसल तैयार होने की अवधि → लगभग60 से 90 दिन मे टमाटर की फसल तैयार हो जाती है। जिसके के बाद किसान भाई फलो की तुडाई शुरू कर देते है।


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Thursday, July 21, 2016

24 लाख की नौकरी छोड इंजीनियर ने अपनाई खेती: अब साल मे 2 करोड का टर्नअवर:उन्नत किसान सचिन काले

किसान भाईयो आज हम बिलासपुर के रहने वाले सचिन काले ने इंजीनियर के बारे मे बताने जा रहे है जिन्होने पढाई पूरी करके 2003 की नौकरी की शुरुआत नागपुर की एक कंपनी से की।

नागपुर मे नौकरी मिलने के कुछ महीनों बाद ही पुणे की एक कंम्पनी से ऑफर मिलने पर उन्होंने पुणे की वह कंम्पनी ज्वाइन कर ली और वहा नौकरी करने लगे।
 इसी बीच एनटीपीसी सीपत में वैकेंसी निकली सचिन ने एग्जाम क्लियर किया और 2005 में वहां नौकरी करने लगे। 3 साल बाद 2008 में एनटीपीसी की नौकरी छोड़कर पुणे चले गए।
तब उन्हें वहां 12 लाख रुपए सालाना पैकेज मिल रहा था। इसके बाद 2011 में दिल्ली की एक कंपनी ने उन्हें 24 लाख रुपए सालाना पैकेज पर हायर किया।
 सचिन के पास उस वक्त बंगला, गाड़ी, नौकर-चाकर और नामी कंपनी में इंजीनियर की नौकरी थी।
इस कंम्पनी मे 3 साल तक नौकरी करने के बाद नौकरी से उनका मन भर गया और 2014 में वह नौकरी छोड कर अपने घर लौट आए।
घर वापस आने पर उने पिता अशोक काले ने उनसे अपने फैमिली कारोबार आगे बढ़ाने के लिए कहा था, लेकिन सचिन काले ने पिता से कहा कि मै कारोबार करने के लिए गांव नहीं लौटे  हैं।मै खेती करूंगा।

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पिता को सचिन की यह बात थोडी अटपटी लगी, लेकिन वह बेटे से मना नहीं कर सके और सचिन अपने खेतो मे काम करना शुरू करदिया।सचिन की मेढ़पार में करीब 20 एकड़ पुश्तैनी जमीन है।
उन्होंने एक ट्रैक्टर लेकर खुद ही खेत की जुताई शुरू की।और सब्जी की खेती करना शुरू करदिया।
इंजीनियर तो थे ही इसका पूरा फायदा खेतो को फसलो के लिये डिजाईन मे उठाया।
साथ ही आस-पास के किसानों को भी अपने खेत में बुलाकर दिखाया कि कैसे अलग-अलग हिस्सों में कई तरह से सब्जी, भाजी, धान, दाल आदि की खेती की जा सकती है। 
खेती को दिया कॉर्पोरेट का रूप
सचिन काले ने शहर से गांव लाैटते समय ही मन बनालिया था कि खेती को कॉर्पोरेट का रूप देकर ही आगे बढा जासकता है।
इसके लिए उन्होंने इनोवेटिव एग्री लाइफ सॉल्यूशन प्राइवेट लिमिटेड नाम से एक कंम्पनी बनाई।
यह कंम्पनी ही इस खेती पर खर्च का इंतजाम करती है अौर उसका हिसाब किताब रखती है, जो इनकम होती है उसमें कंपनी का भी हिस्सा होता है।कंम्पनी और खेती को जोडकर ही सचिन ने नयी ऊँचाईया दी।
सचिन बताते हैं कि पिछले एक साल में उनकी कंपनी का टर्न ओवर दो करोड़ रुपए तक पहुंच गया है।
आस-पास के 70 गंवो के किसान आते हैं सलाह लेने
इंजीनियर की नौकरी छोड़कर खेती करने की सचिन की चर्चा आस-पास के गांव में फैली तो आस-पास के किसान उनकी फसलो को देखने के लिये आने लगे।

उनके खेतों में खड़े पौधे से कई किसान काफी प्रभावित हुए। उनकी देखादेखी उन्होंने भी अपने खेतों में ऐसी ही फसल ली।
पैदावार अच्छी हुई तो देखते ही देखते 2 साल में उनसे 70 किसान जुड़ गए, जो अब खेती की सलाह लेने आते रहते हैं।
दादा से मिली समाज के लिए काम करने की प्रेरणा
सचिन की उम्र करीब 38 साल है। करीब 12 साल तक उन्होंने नौकरी की जिसमे वह नागपुर, पुणे, दिल्ली, बंबई में रहे।
जब भी वे घर आते थे, तब उनके दादा वसंतराव काले उनसे कहते थे कि नौकरी में कुछ नहीं रखा है। सिर्फ पैसे कमाना ही जिंदगी नहीं है।
उनका कहना था कि समाज के लिए भी उन्हें कुछ करना चाहिए। 
इस बात ने उन्हें इंस्पायर किया और उन्होंने लोगों के लिए ताजी सब्जियां और आर्गेनिक फूड के प्रोडक्ट प्रोड्यूस करने की ठानी।और आज सचिन काले अपने ऐरिया के उन्नत किसान है जो सालाना करोडो कमाते है ।
सचिन काले से प्रेरणा लेकर दूसरे किसान भी सफलता की राह पर चलपडे है बहुत से किसान सचिन से जानकारी लेकर आर्गेनिक खेती करके अच्छा मुनाफा कमा रहे है।


किसान गजानंद पटेल आधुनिक खेती से सालाना कमाते हे 40 लाख: प्रधानमंत्री जी भी कर चुके हे सम्मानित



करेले की उन्नत खेती कैसे करे?किसान करेले की खेती करके लाखो रू़ का लाभ ले सकते है।
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Wednesday, July 20, 2016

किसान गजानंद पटेल आधुनिक खेती से कमाता है 40 लाख रूपये सालाना: प्रधानमन्त्री जी भी कर चुके हे सम्मानित

महासमुंद: एक ऐसा किसान जो कभी पानी की कमी तो कभी पानी की अधिकता से फसलों को मरते तबाह होते देखता रहा ।

लेकिन कभी इस किसान ने हिम्मत नही हारी होसला कई बार टूटा दलाल और मौसम की मार ने कई बार लाखों का नुकसान पहुंचाया, लेकिन उसने हार नहीं मानी। खेती करने और इसे लाभ का धंधा बनाने की उसकी जिद के आगे कठिनाईया झुक गई और आज वह प्रदेश का नंबर वन तथा उन्नत शील किसान बन गया है। हम जिस किसान की बात कर रहे हैं वह हे महासमुंद जिले के छपोराडीह गांव के 39 वर्षीय किसान गजानंद पटेल की जो आज सिर्फ खेती करके सालाना चालीस लाख रुपए कमाते हैं।
पटेल के पास सिर्फ चार एकड़ ही कृषि भूमि है, जिसमे पहले उन्हें धान की फसल उगाते थे। धान की फसल से उनहे महज 80 हजार रुपए का अधिकतम सालाना लाभ मिलता था।जिसमे घर परिवार को चलाना उनके लिये बहुत ही कठिन था। गजानंद पटेल ने पारम्परिक खेती छोडकर फल और सब्जी की खेती शुरू की, अब फल और सब्जी की खेती से इतनी ही जमीन पर न्यूनतम चालीस लाख की सालाना कमाई हो रही है। गजानंद पटेल पॉलीहाउस खेती करने वाले प्रदेश के पहले किसान हैं। वे कहते हैं, ‘खेती के लिए जीवटता के साथ व्यवसायिक दृष्टिकोण भी जरूरी है।गजानंद पटेल नई-नई वैज्ञानिक तकनीको का प्रयोग करते है।और बताते हे कि नई-नई तकनीकों के प्रयोग से ही किसान उन्नत शील होगा, इसलिए उनहोने खुद भी पॉलीहाउस खेती को अपनाया।
किसान अक्सर मौसम और कीट-पतंगों की मार से फसल को नहीं बचा पाता,अधिक वर्षा तथा ओलावृष्टी मे फसल बर्बाद हो जाती है ऐसे में पॉलीहाउस वरदान साबित हुआ है। मौसम चाहे जो हो, यहां की फसल सौ फीसदी उत्पादन से किसान को लाभ पहुंचाएगी।

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दो साल में 25 लाख का नुकसान
गजानंद पटेल को तरबूज ने मुंबई के बाजार में खासी पहचान दिलाई।उनकी तरबूज की इस खेती को देश के कई हिस्सों से किसान यहा देखने पहुंचे। बहुत से दलालों की गिद्ध नजर भी उनकी इस फसल पर पड़ी, दलालो ने अधिक मुनाफा दिलाने के नाम पर साल 2003 में उनहे आठ लाख रुपए चूना लगा दिया। अभी दलालों की मार से उबर भी नहीं पाए थे कि साल 2004 में हुई ओलावृष्टि ने सोलह लाख की फसल को पूरी तरह बरबाद कर दिया। दो साल के भीतर ही पचीस लाख रुपए का नुकसान हुआ, लेकिन उनहोने हार नही मानी, और ना ही फल तथा सब्जी की खेती से मुंह मोड़ा, लगातार अपने होंसले और कडी महनत से आगे बढते रहे सफलता ने उनके कदमो को चूमा और आज गजानंद पटेल एक उन्नत शील किसान हैं।
डेढ़ महीने में 17 लाख का फायदा
गजानंद पटेल ने अपनी बंजर हो रही मैदानी जमीन में खीरा और शिमला मिर्च की खेती करके यह साबित कर दिया है, कि कम लागत में अधिक मुनाफा प्राप्त किया जा सकता है। गजानंद ज्यादा पढे लिखे भी नही हे उनहोने महज मिडिल स्कूल तक की शिक्षा प्राप्त की है, लेकिन आज हार्टीकल्चर डिपार्टमेंट उनके द्वारा तैयार वर्मी कंपोस्ट खाद खरीद रहा है। विभाग की सलाह पर गजानंद ने लिलियम फूल की खेती की और डेढ़ महीने में भोपाल बाजार से 17 लाख रुपए का मुनाफा कमाया। अब झरबेरा फूल की तैयारी शुरू की गई है। जल्द ही इसकी खेती होगी।
प्रधानमंत्री जी भी गजानंद पटेल को कर चुके हैं सम्मानित
फसल परिवर्तन की ऐसी सफलता राज्य में किसी किसान ने हासिल नहीं की, यह राज्य सरकार के साथ कृषि विश्वविद्यालय के वैज्ञानिक भी मानते हैं। इस सफलता के लिए गजानंद को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, मुख्यमंत्री डॉ रमन सिंह, कृषि मंत्री बृजमोहन अग्रवाल समेत कई कृषि वैज्ञानिक समय-समय पर सम्मानित कर चुके हैं। गजानंद सम्मान को आगे बढ़ने का रास्ता मानते हैं। अब उनसे उन्नत बीच तैयार करने का तरीका सीखने कृषि वैज्ञानिक भी गांव पहुंच रहे हैं।
किसानों के लिए प्रेरणा हे गजानंद

एक दशक से फल और सब्जी की खेती में गांव के साथ क्षेत्र को नई पहचान देने वाले किसान गजानंद, दूसरे किसानों के लिए प्रेरणा बन गए हैं। छपोराडीह के देवसिंह साहू, सोहनलाल निषाद, झड़ीराम ध्रुव और प्रभुराम दीवान जैसे पचास से अधिक किसानों ने तरबूज की खेती में गजानंद के अनुभवों का लाभ उठाते हुए महानगरीय बाजार में जगह बना ली है। वे कहते हैं कि पटेल ने हमें एक फसली खेती की हताशा भरी जिंदगी से उबारा है, पहले वे कर्ज लेकर खेती करते थे, लेकिन अब इसकी आवश्यकता नहीं है।धीरे-धीरे अब उनके आर्थिक हालात सुधर रहे है।


24 लाख की नौकरी छोडकर इंजीनियर ने अपनाई खेती,अब कमाते हे 2 करोड सालाना:उन्नत किसान सचिन काले

सिर्फ 20 रुपये के वेस्ट डीकम्पोज़र से हो रही है अच्छी खेती

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करेले की उन्नत खेती कैसे करे? (karela ki unnat kheti kese kare)


किसान भाईयो हमारे देश में करेला बहुत जयादा उपयोग होने वाली सब्जियो मे से एक है।भारत मे करेला की खेती सदियो से होती आ रही है । इसका ग्रीष्मकालीन सब्जियों में महत्वपूर्ण स्थान है । करेला अपने पौष्टिक एवं औषधीय गुणों के कारण काफी लोकप्रिय सब्जी है ।  मधुमेह के रोगियों के लिये करेला की सब्जी का सेवन बहुत लाभदायक है । इसके फलों से सब्जी बनाई जाती है । इसके छोटे-छोटे टुकड़े करके धूप में सुखाकर रख लिया जाता हैं, जिनका बाद में बेमौसम की सब्जी के रूप में भी उपयोग किया जाता है ।
करेला की खेती के लिये जलवायु
करेला की खेती के लिए ठाम एवं आर्द्र जलवायु की जरूरत पड़ती है । करेला के पौधों की खासियत है कि यह अन्य कद्दू वर्गीय फसलों की अपेक्षा अधिक शीत सहन कर सकता है, पर अधिक वर्षा से फसल की उपज घट जाती है । करेला की खेती के लिए उत्तर एवं मध्य भारत की जलवायु अधिक अनुकूल मानी गयी है ।
करेला की खेती के लिए ऐसी भूमि का चयन करना चाहिए, जिनमें अम्ल एवं नमक का प्रतिशत सामान्य से अधिक न हो अर्थात भूमि का पी.एच. 6.5 से 8.00 के मध्य तथा मृदा में जीवांश का प्रतिशत अधिक से अधिक होना चाहिए, ताकि पौधों को पर्याप्त मात्रा में पोषक तत्व उपलब्ध हो सकें।इसके लिये नदियो के अास-पास की भूमी अधिक उपयुक्त होती है।

करेले की खेती के लिए खेत की तैयारी करते समय 200 लीटर बायोगैस स्लरी अथवा 2000 लीटर संजीवक खाद खेत में डालकर 4-5 दिन पश्चात मिट्टी पलट हल से जुताई करें । इसके उपरान्त एक सप्ताह तक खेत को खुला छोड़ देते हैं । तत्पश्चात तीन से चार बार देशी हल से जुताई कर मेंडा (पटेला) लगाकर खेत को समतल करें, तत्पश्चात तीन-तीन फीट के अन्तराल पर 1 फीट गहरा तथा 2 फीट चौड़ा थावला बनाकर प्रत्येक थावले में 500 ग्राम वर्मी कम्पोस्ट तथा 50 ग्राम कॉपर सल्फेट पाउडर एवं 200 ग्राम राख मिलाकर थावले को मिट्टी से ढ़क देते हैं तथा खेत की सिंचाई कर लें । सिंचाई के 5-6 दिन पश्चात करेला बीजों की बुवाई थावले में कर दें । बुवाई करते समय प्रत्येक थावले में 4 से 5 बीज पौध हेतु डालें ।
करेले के किस्मेंकोयम्बटूर लौग: यह दक्षिण भारत की किस्म है, इस किस्म के पौधे अधिक फैलाव लिए होते है । इसमें फल अधिक संख्या में लगते हैं तथा फल का औसत वजन 70 ग्राम होता है । इसकी उपज 40 क्विंटल प्रति एकड़ तक आती है ।कल्याणपुर बारहमासी: इस किस्म का विकास चंद्रशेखर आजाद कृषि विश्वविध्यालय द्वारा किया गया है | इस किस्म के फल आकर्षक एंव गहरे हरे रंग के होते हैं । इसे गर्मी एवं वर्षा दोनों ऋतुओं में उगाया जा सकता है, अर्थात् ये किस्म वर्ष भर उत्पादन दे सकती है । इसकी उपज 60-65 विवंटल प्रति एकड़ तक आती है ।हिसार सेलेक्शन: इस किस्म को पंजाब, हरियाणा में काफी लोकप्रियता हासिल है | वहां की जलवायु में इसकी उपज 40 क्विंटल प्रति एकड़ तक प्राप्त होती है |अर्का हरित: इसमें फलों के अन्दर बीज बहुत कम होते हैं । यह किस्म गर्मी एवं वर्षा दोनों ऋतुओं में अच्छा उत्पादन देती है । पतंजलि विषमुक्त कृषि विभाग ने अपने शोध प्रयोगों में पाया कि इसकी प्रत्येक बेल से 34 से 42 फल प्राप्त होते हैं ।पूसा विशेषः यह किस्म बीज बुवाई के 55 दिन बाद फल देना प्रारम्भ कर देती है । इस किस्म के फल मध्यम, लम्बे, मोटे व हरे रंग के होते हैं । इसका गूदा मोटा होता है । फल का औसत भार 100 ग्राम तक होता है । पतंजलि विषमुक्त कृषि विभाग इस किस्म को फरवरी से जून माह के बीच उठाने की सलाह देता है।
खेत की सिंचाई एवं निराई-गुड़ाई
करेला की फसल में सिंचाई काफी महत्वपूर्ण प्रभाव डालती है, अतः समय-समय पर सिंचाई अवश्य करते रहना चाहिए । चूंकि करेल की फसल ग्रीष्म एवं वर्षा ऋतु में उगाई जाती है, जिस वजह से खरपतवार अधिक संख्या में उग जाते हैं । अत: इनको समय-समय पर खेत से निकालना बहुत जरुरी है । इसी प्रकार खेत का नियमित अन्तराल पर निराई-गुड़ाई करते रहना चाहिए, ताकि फसल पर फल-फूल अधिक से अधिक संख्या में आये |
करेले की खेती के किये कुदरती खाद कैसे बनाये?
बीज बुवाई के 3 सप्ताह पश्चात जब करेला के पौधे में 3-4 पत्ते निकलना प्रारम्भ हो जायें, उस समय 2000 लीटर बायोगैस स्लरी अथवा 2000 लीटर संजीवक खाद अथवा 40 किलो गोबर से निर्मित जीवामृत खाद प्रति एकड़ की दर से फसल को दें । दूसरी बार जब पौधों पर फूल निकलने प्रारम्भ हो जायें, उस समय पुनः उपरोक्त कुदरती खाद फसल को देनी चाहिए । इसी प्रकार जब करेला फसल की प्रथम तुड़ाई प्रारम्भ हो, उस समय 200 किलोग्राम वर्मी कम्पोस्ट में 50 किलोग्राम राख मिलाकर फसल पर छिडकाव कर देना चाहिए, ताकि फसल की उपज अधिक से अधिक मिल सके।
 करेला फसल की सुरक्षा कैसे करे
करेला की फसल में कीटों का प्रकोप अपेक्षाकृत कम होता है, किन्तु अधिक स्वस्थ फसल हेतु नियमित अन्तराल पर कुदरती कीट रक्षक का छिड़काव करते रहना चाहिए, ताकि फसल उपज ज्यादा एंव उत्तम गुणवत्ता के साथ प्राप्त हो सके।
रैड बीटल: यह एक हानिकारक कीट है, जोकि करेला के पौधे पर प्रारम्भिक अवस्था पर आक्रमण करता है | यह कीट पत्तियों का भक्षण कर पौधे की बढ़वार को रोक देता है | इसकी सूंडी काफी खतरनाक होती है, जोकि करेला पौधे की जड़ों को काटकर फसल को नष्ट कर देती है |
 रैड बीटल से करेला की फसल केसे बचाये: रैड बीटल से करेला की फसल सुरक्षा हेतु पतंजलि निम्बादी कीट रक्षक का प्रयोग अत्यन्त प्रभावकारी है | 5 लीटर कीटरक्षक को 40 लीटर पानी में मिलाकर, सप्ताह में दो बार छिड़काव करने से रैड बीटल से फसल को होने वाले नुकसान से बचा जा सकता है |
2. पाउडरी मिल्ड्यू रोग: यह रोग करेला पर एरीसाइफी सिकोरेसिएटम की वजह से होता है | इस कवक की वजह से करेला की बेल एंव पत्तियों पर सफ़ेद गोलाकार जाल फैल जाते हैं, जो बाद में कत्थई रंग के हो जाते हैं | इस रोग में पत्तियां पीली होकर सूख जाती हैं।
पाउडरी मिल्ड्यू रोग का कुदरती उपचार: इस रोग से करेला की फसल को सुरक्षित रखने के लिए 5 लीटर खट्टी छाछ में 2 लीटर गौमूत्र तथा 40 लीटर पानी मिलाकर, इस गोल का छिड़काव करते रहना चाहिए | प्रति सप्ताह एक छिड़काव के हिसाब से लगातार तीन सप्ताह तक छिड़काव करने से करेला की फसल पूरी तरह सुरक्षित रहती है |
3. एंथ्रेक्वनोज रोग: करेला फसल में यह रोग सबसे ज्यादा पाया जाता है | इस रोग से ग्रसित पौधे की पत्तियों पर काले धब्बे बन जाते हैं, जिससे पौधा प्रकाश संश्लेषण क्रिया में असमर्थ हो जाता है | फलस्वरुप पौधे का विकास पूरी पूरी तरह से नहीं हो पाता |
एंथ्रेक्वनोज रोग का कुदरती उपचारः रोग की रोकथाम हेतु एक एकड़ फसल के लिए 10 लीटर गौमूत्र में 4 किलोग्राम आडू पत्ते एवं 4 किलोग्राम नीम के पत्ते व 2 किलोग्राम लहसुन को उबाल कर ठण्डा कर लें, 40 लीटर पानी में इसे मिलाकर छिड़काव करने से यह रोग पूरी तरह फसल से चला जाता है ।
करेले की फसल की तुड़ाई कब और कैसे करे?
करेला फलों की तुड़ाई कोमल अवस्था में  करनी चाहिए, वैसे सामान्यतः बीज बुवाई के 90 दिन पश्चात फल तोड़ने लायक हो जाते हैं । फल तुड़ाई का कार्य सप्ताह में 2 या 3 बार करना चाहिए ।
करेले की उपज

उपरोक्त शस्य क्रियाओं के अलुपालन से करेला की उपज 55 से 60 क्विंटल प्रति एकड़ तक प्राप्त की जा सकती है ।


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Tuesday, July 19, 2016

हिमाचल के किसानो की जीविकोपार्जन का जरिया है सेब की बागवानी

हिमाचल प्रदेश में सेब की बागवानी लाखों परिवार के लिए जीविकोपार्जन का  जरिया बना हुआ हैं। समय के साथ साथ हिमाचल प्रदेश में इसकी खेती का भी विस्तार हुआ है लगातार
होने वाले इस विस्तार से वर्तमान में लगभग 1.7 लाख से भी अधिक परिवारों के जीविका का माध्यम है। हिमाचल प्रदेश में करीब 1,09,533 हेक्टेयर में सेब के बाग हैं। सूत्रों के अनुसार  हिमाचल प्रदेश में सेब का रकबा 1950-51 के दौरान सिर्फ 40 हेक्टेयर होता था। सेबों के बाग में विस्तार होता गया और वर्तमान में फलों के कुल क्षेत्र का करीब 49 प्रतिशत क्षेत्र सेब के अंतर्गत है। सरकार के कोशिश के कारण सेब की खेती का दायरा बढ़ा है और शिमला, कुल्लू, किन्नौर, मंडी, चंबा तथा सिरमौर जिले और अब लाहौल-स्पीति जैसे आदिवासी बहुल जिलों में भी सेब की खेती प्रमुख तौर पर होती है। लोग बड़े पैमाने पर सेब की खेती करते हैं। इस क्षेत्र के लाखों लोगों को रोजगार मिला हुआ है और लोगों की जीवनशैली बहुत बेहतर हुई। सरकार लोगों को ज्यादा उपज देने वाली सेब की किस्में मुहैया करा रही है और उत्पादकों को बेहतर विपणन बुनियादी ढांचा मुहैया करा रही है जिस से सेब की खेती को किसानो के लिये अधिक लाभदायक बनाया जा सके।
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