भिंडी
भारत के साथ-साथ पूरे विश्व मे भिंडी सब्जियों मे अपना प्रमुख स्थान रखती है। और भारतीय व्यंजनों में तो भिंडी की विशेषता ही अलग है। लोग इसे बड़े ही चाव से खाते है। इसे लेडीफिंगर के नाम से भी जाना जाता है। भिंडी स्वादिष्ट होने के साथ ही स्वस्थवर्दक भी है। मुख्य रुप से भिंडी में प्रोटीन, कार्बोहाइड्रेट खनिज लवणों के अतिरिक्त विटामिन ए, सी थाईमीन एवं रिबोफ्लेविन भी पाया जाता है। भिंडी के फल में आयोडीन की मात्रा पायी जाती है। भिंडी कब्ज रोगी के लिए विशेष गुणकारी होती है।
भिंडी के उत्पादन के लिए पूरे विश्व मे भारत का प्रथम स्थान है। भारत के लगभग सभी राज्यों में भिंडी की खेती की जाती है। इनमे से कुछ प्रमुख भिंडी उत्पादक राज्य है। उड़ीसा, पश्चिम बंगाल, बिहार, झारखण्ड, गुजरात, महाराष्ट्र, हरियाणा, पंजाब, उत्तरप्रदेश और असम। पूरे भारत में भिंडी की खेती लगभग 498 हजार हैक्टेयर भूमि पर की जाती है। जिससे कुल 5784 हजार टन भिंडी का उत्पादन प्रतिवर्ष होता है।
भिंडी की खेती ग्राीष्मकालीन और वर्षाकालीन दोनो फसलो के लिए की जाती है। ग्रीष्मकाल में भिंडी की अगेती फसल लगाकर किसान भाई अधिक कमाई कर सकते है।
भिंडी की खेती के लिए जलवायु तथा मिट्टी
भिंडी की फसल के अच्छे उत्पादन के लिए गर्म मौसम अनुकुल माना जाता है। इसके बीजों के अच्छे अंकुरण के लिए 20 सेंटीग्रेड से कम का तापमान अनुकूल नही होता है। तथा 42℃ से अधिक तापमान पर भिंडी के फूल का परागण नहीं होता है और फूल नीचे गिर जाते है।
किसान भाईयो भिंडी की खेती सभी प्रकार की मिट्टी मे की जा सकती है। लेकिन हल्की दोमट मिट्टी जिसमें पर्याप्त मात्रा में जीवांश उपलब्ध हो तथा उचित जल निकास वाली मिट्टी भिंडी की खेती के लिए श्रेष्ठ मानी जाती है।
खेत की तैयारी
किसान भाईयो भिंडी की फसल की अधिक पैदावार लेने के लिए खेत को अच्छे से तैयार करना चाहिए। इसके लिए खेत मे 300 कुंतल
गोबर की अच्छे से सड़ी हुई खाद डालकर खेत की दो-तीन बार गहरी जुताई कर मिट्टी को भूरभूरा बना लेना चाहिए। तथा पाटा चलाकर खेत को समतल कर लेना चाहिए।
भिंडी की उन्नत किस्में
किसान भाईयो बाजार मे भिंडी की बहुतसी उन्नत किसमे मौजूद है। इन्ही मे से कुछ प्रमुख किस्मो के नाम इस प्रकार है।
उन्नत किसमे- पंजाब पदमनी, प्रभनी क्रांति, पी-7, अर्का अनामिका, अर्का अभय, काशी प्रगति, कशाई विभूति
संकर किस्मे- वर्षा, विशाल, विजय, शीतला ज्योति, शीतला उपहार, सोनी-1001, क्लासिक-1002, मार्वल-1003, करिश्मा-1004, प्रभावा-225, म्रदुला-251, एमएएचवाई-64, भिंडी नं-10, एमएएचवाई-55, एमएएचवाई-28, ओएच-016, ओएच-152 आदि।
बीजोपचार- ग्रीष्मकाल में ली जाने वाली फसल के लिए 18-20 कि.ग्रा. बीज प्रतिहेक्टर बुवाई के लिए पर्याप्त होता है। जबकि वर्षाकाल मे ली जाने वाली फसल की बढ़वार अधिक होने के कारण बीज की मात्रा कम रखनी चाहिए। इसके लिए 12-15 कि.ग्रा. बीज प्रति हेक्टर उपयोग करना चाहिए। भिंडी के बीज अधिक कठोर होते है। अतः ग्रीष्मकालीन फसल के लिए भिंडी के बीजों को बुवाई से पहले 24 घंटे तक पानी में डुबाकर रखने से अच्छा अंकुरण होता है। बीज उपचार हेतु तथा अंकुरण को बढ़ाने और रोगो से बचाने के लिए बीजो को 2gm कार्बेण्डाजिम12% + मेंकोजेब63% (सिक्सर, साफ)/ kg बीज की दर से उपचारित करें
पारम्परिक खेती छोड़ अपनाई फूलो की खेती तो 40 लाख होने लगी कमाई
सफेद मूसली की खेती ने किसान को किया मालामाल
बीज की बुवाई
किसान भाईयो वेसे तो ग्रीष्मकालीन भिंडी की बुवाई फरवरी-मार्च के महीने में की जाती है। लेकिन बाजार मे अच्छे भाव प्राप्त करने के लिए अगेती फसल के लिए कुछ क्षेत्र में प्रगतिशील किसान 15 जनवरी के बाद ही भिंडी की बुवाई कर लेते है। यदि भिंडी की फसल लगातार लेनी है तो तीन सप्ताह के अंतराल पर फरवरी से जुलाई के मध्य अलग-अलग खेतों में भिंडी की बुवाई कर सकते है।
ग्रीष्मकाल में ली जाने वाली भिंडी की फसल के लिए इसके बीजों की बुवाई कतारों में करनी चाहिए। भिंडी बुवाई के समय ध्यान रखे कि कतार से कतार दूरी 25 से 30 सें.मी. तथा कतार में पौधे से पौधे की दूरी 15 से 20 से.मी. होनी चाहिए।वर्षाकालीन भिंडी के लिए कतार से कतार दूरी 40-45 सें.मी. तथा कतारों में पौधे की बीच 25-30 सें.मी. का अंतर रखना उचित होता है।
खाद तथा उर्वरक
भिंडी की अच्छी फसल प्राप्त करने के लिए इसकी फसल मे उचित मात्रा तथा सही समय पर उर्वरको का उपयोग करना चाहिए। इसमे नत्रजन 60 किलोग्राम, स्फुर 30 किलोग्राम और पोटाश की 50 किलोग्राम मात्रा प्रति हेक्टर की दर से फसल में देना चाहिए। नत्रजन की आधी मात्रा तथा स्फुर व पोटाश की पूरी मात्रा बुवाई के समय ही बीजो के साथ भूमि में देना चाहिए। नत्रजन की शेष बची मात्रा को दो भागों में 30-40 दिनों के अंतराल पर देना चाहिए।
सिंचाई
किसान भाई बुवाई के समय ये ध्यान रखे कि यदि भूमि में पर्याप्त नमी नही है तो बुवाई से पहले ही खेत की सिंचाई करनी चाहिए। इसके बाद पौधे उग आने पर गर्मी के मौसम में प्रत्येक पांच से सात दिन के अंतराल पर सिंचाई आवश्य करते रहे। वर्षाकालीन फसल के लिए मौसम को ध्यान में रखकर आवश्यकतानुसार खेत की सिंचाई करनी चाहिए। वर्षाकालीन फसल में अधिक वर्षा के समय उचित जलनिकास का प्रबंध भी करना चाहिए।
खरपतवार नियंत्रण
भिंडी मे यदि शुरुआती 15-20 दिनों के अंदर ही खरपतवार पर नियंत्रण कर लिया जाए तो अच्छा फसल उत्पादन होगा। इसके बाद नियमित निंराई-गुड़ाई कर के खेत मे खरपतवार नही उगने देने चाहिए। खरपतवार नियंत्रण हेतु वीडर या खुरपी आदि का प्रयोग करे या फिर रासायनिक नींदानाशकों का भी प्रयोग किया जा सकता है। इसके लिए बासालिन को 1.2 कि.ग्रा. सक्रिय तत्व को प्रति हेक्टर की दर से पर्याप्त नम खेत में बीज बोने के पूर्व मिलाने से प्रभावी खरपतवार नियंत्रण किया जा सकता है। इसके अलावा पेंडिमिथलीन,और एलकलोर जैसे खरपतवार नाशियों का प्रयोग भी किसान भाई कर सकते है।
फलो कि तुड़ाई तथा प्राप्त उपज
भिंडी मे कई प्रकार की किस्मे पाई जाती है। इन्ही किस्मो की गुणता के अनुसार 45-60 दिनों में पौधों पर फल तैयार होने लगते है। किसान भाई सावधानी पूर्वक इन फलों की तुड़ाई प्रारंभ करदे। इसके बाद 4 से 5 दिनों के अंतराल पर भिंडी की नियमित तुड़ाई की जानी चाहिए। ग्रीष्मकाल में ली जाने वाली भिंडी की फसल का उत्पादन 60-70 क्विंटल प्रति हेक्टर तक होता है।
भिंडी मे लगने वाले रोग तथा इनसे बचाव
भिंडी मे कई प्रकार के प्रमुख रोग लग सकते है जैसे पीत शिरा मौजक, चूर्णिल आसिता तथा कुछ नुकसानदायक कीट जैसे प्ररोेह, फल छेदक और जैसिड आदि का भी प्रकोप देखने को मिलता है। इनकी पहचान तथा इन से बचाव के उपचार इस प्रकार है।
1- पीत शिरा रोग
पीत शिरा रोग भिंडी की फसल को भारी नुकसान पहुचाने वाला प्रमुख रोग है। इस रोग के प्रकोप के कारण पौधों की पत्तियों की शिराएं सबसे पहले पीली पड़ने लगती है। फिर पत्तियाँ पूरी तरह पीली होजाती है और इसके साथ ही फल भी पीले रंग के हो जाते है और पौधे की बढ़वार रुक जाती है। वर्षा ऋतु में इस रोग का संक्रमण अधिक देखा जाता है।
उपचार
किसान भाई अपने भिंडी के खेत का नियमित भृमण करे और अपने खेत मे रोग के लक्षण वाले पौधे दिखाई देते ही उन्हें खेत से उखाड़ कर नष्ट कर दे। ताकि फसल पर रोग के फैलाव को नियंत्रित किया जा सके। यह विषाणु जनित रोग है जो एक सफेद मक्खी (कीट) द्वारा स्वस्थ पौधों में फैलाया जाता है।
इस रोग संवाहक कीट (सफेद मक्खी) के नियंत्रण के लिए किसान भाई आक्सी मिथाइल डेमेटान 1 मिली प्रति लीटर पानी में मिलाकर छिड़काव कर सकते है। इसके छिड़काव से रोग का प्रसारण कम होता है। इसके साथ ही सावधानी के तौर पर किसान भाई को पीतशिरा रोग प्रतिरोधी किस्मों जैसे अर्का अभय, अर्का अनामिका, परभणी क्रांति इत्यादि का चुनाव बुवाई करते समय करना चाहिए। फसल के चारों ओर 2-3 कतार मक्का की फसल की बुवाई करने से भी रोग का फैलाव बहुत हद तक नियंत्रित किया जा सकता है।
2- चूर्णिल आसिता
चूर्णिल आसिता रोग भी भिंडी की फसल को भारी नुकसान पहुचाने वाला प्रमुख रोग है। इस रोग में भिंडी की पुरानी निचली पत्तियों पर सफेद चूर्ण युक्त हल्के पीले धब्बे पड़ने लग जाते है। कुछ दिनों बाद सफेद चूर्ण वाले ये धब्बे काफी तेजी से फैलाव करते है। इस रोग पर समय से नियंत्रण न करने पर भिंडी की पैदावार 30 प्रतिशत तक कम हो सकती है।
उपचार
3- प्ररोह एवं फल छेदक
वर्षाकालीन खेती के अंतर्गत ली जाने वाली भिंडी की फसल पर इस कीट का प्रकोप अधिक देखा जाता है। प्रारंभिक अवस्था में इल्ली पौधे के कोमल तने में छेद करती है जिससे पौधा सूख कर मर जाता है। फूलों पर इस इल्ली के आक्रमण से फल लगने से पहले ही फूल सुख कर गिर जाते है। पौधों पर फल लगने के बाद इल्ली फलो मे छेद बनाकर उनहे अंदर ही अंदर खाती है। जिससे फल मुड़ जाते हैं और खाने योग्य नहीं रहते है। ऐसी अवस्था मे किसान को भारी नुकसान उठाना पड़ता है। क्यों कि ऐसी फसल के बाजार मे खरीदार नही होते।
उपचार
फल छेदक से ग्रस्त फलों और तने को काटकर नष्ट कर देना चाहिए।
कीटनाशकों से उपचार हेतु क्विनॉलफास 25 ई.सी. 1.5 मिली लीटर या इंडोसल्फान 1.5 मिली लीटर प्रति लीटर पानी की दर से कीट प्रकोप की मात्रा के अनुसार 2-3 बार छिड़काव करे। फल बनने के उपरांत कीट प्रकोप होने पर फेनवेलरेट 0.5 मिली प्रति लीटर पानी में घोलकर प्रयोग करे।
4- रेड स्पाइडर माइट
यह माइट पौधो की पत्तिायों की निचली सतह पर बहुत भारी संख्या में कॉलोनी बनाकर रहते हैं। यह अपने मुखांग से पौधों की पत्तिायों की कोशिकाओं में छिद्र बनाता हैं । और इस छिद्र से जो द्रव निकलता है उसे यह माइट चूसता हैं। जिसके कारण पत्तिायां पीली होकर टेढ़ी मेढ़ी हो जाती हैं। इसका अधिक प्रकोप होने पर संपूर्ण पौधा ही सूख कर नष्ट हो जाता हैं।
उपचार