Saturday, December 31, 2016

गेंहू मे लगने वाले प्रमुख रोग तथा कीट और इनसे बचाव Kisan Help Room



रबी की फसल के लिए सही समय से बुवाई की गई गेहूं की फसल में इस समय कीट, रोग और खरपतवार का प्रकोप देखने को मिल सकता है।
इस मौसम में अधिकतर नम पूर्वा हवा चलती है जिस के कारण गेंहू की फसल में कई प्रकार के रोग तथा कीटो का प्रकोप ज्यादा होता है। पूर्वा हवा चलने से रबी की फसल में नमी बनी रहती है और नमी के कारण कई तरह के कीट और रोग फसल में पनपने की आदर्श परिस्थियां बन जाती हैं।
कृषि विभाग द्वरा दिए गए आंकड़ों के अनुसार इस वर्ष उत्तरप्रदेश मे 90 लाख हैक्टेयर से भी ज्यादा भूमि पर  गेहूं की बुआई हुई है।


डॉ उमेश कुमार जो कि केन्द्रीय एकीकृत नाशीजीव प्रबंधन केंद्र लखनऊ के प्रमुख है। वे कीट और रोग प्रबंधन के बारे में बताते हुए कहते हैं।कि हमारे किसान भाई किसी भी कीट या रोग का फसल पर प्रकोप होते ही सबसे पहले रासायनिक दवाओं की ओर ही भागते हैं। जबकि वैज्ञानिक तरीके से कीट और रोग नियंत्रण में रासायनिक दवाओं का प्रयोग सबसे आखिरी हथियार के तौर पर इस्तेमाल किया जाना चाहिए है।
कृषि मंत्रालय भारत सरकार द्वारा पेश किये गए साल 2012-13 के आंकड़ों के अनुसार हमारे देश के किसान 26 रुपए की फसल की रक्षा के लिए एक रुपए का रसायन खर्च करते हैं।
गेहू की फसल को कीटों से बचाने के कुछ उपाय
1_  दीमक
गेंहू की फसल पर दीमक का प्रकोप दिखाई दे तो इनकी रोकथाम के लिए दृविवेरिया बसिअना नामक दवाई या लिन्डेन नामक दवा का सुरक्षित छिड़काव करें। अगर आपके खेत में दीमक का प्रकोप हो चुका है तो इन से बचाव के लिए खेत मे गोबर की खाद का प्रयोग न करे बल्कि दीमक प्रभावित क्षेत्र में10 कुंतल प्रति हेक्टेयर के हिसाब नीम की खली  डाल सकते हैं।
2 _ माहू
यह पौधे का रस चूसने वाले छोटे कीट होते हैं जो मुलायम पौधों का रस चूस लेते है। इस कीट के शिशु तथा प्रौढ़ कीट पौधे की पत्तियों और बालियों से रस चूसते हैं। रोकथाम के लिए नीम तेल 1500 पीपीएम दो मिली / लीटर पानी के हिसाब से फसल पर छिड़काव करें। इसके अलावा इस कीट की रोकथाम के लिए येल्लो स्टिकी ट्रैप का भी प्रयोग कर सकते हैं। या फिर लाल मिर्च पाउडर के घोल का भी फसल पर छिड़काव लाभकारी होता है।
3_ गुलाबी तना बेधक

यह एक ऐसा कीट है जो तने को भीतर से खाकर पौधों को कमजोर कर देता हैं। इस किट की रोकथाम के लिए फेरोमोने ट्रैप का प्रयोग करें और नेपियर या सुडान घांस को रक्षक फसल के रूप मे खेत के चारों तरफ लगाएं।
गेंहू की फसल में लगने वाले प्रमुख रोग तथा इन से बचाव
1-  झुलसा रोग
झुलसा रोग में पौधे की पत्तियों के नीचे कुछ पीले और कुछ भूरापन लिए हुए अण्डाकार धब्बे दिखाई देते हैं। जो कि बाद में पत्तियों के किनारों पर कत्थई भूरे रंग के हो जाते हैं।
झुलसा रोग बचाव के लिए प्रोपिकोनोजोल 25 प्रतिशत ईसी रसायन के आधा लीटर को 1000 लीटर पानी में घोलकर फसल पर इसका छिड़काव करें।
2-  गेरुई या रतुआ रोग
इस रोग में पौधों की पत्तियों पर फफूंदी के फफोले पड़ जाते हैं जो बाद में बिखर कर अन्य पत्तियों को भी रोग ग्रस्त कर देते हैं। इस रोग से बचाव के लिए एक प्रोपीकोनेजोल 25 प्रतिशत ईसी रसायन की आधा लीटर मात्रा को 1000 लीटर पानी में घोलकर फसल पर छिड़काव करें।
इसके साथ ही चूहे भी गेंहू की फसल को नुकसान पहुंचाते हैं।
गेहूं की खड़ी फसल को चूहे बहुत अधिक नुकसान पहुचाते हैं। इस लिए फसल तैयार होने तक दो या तीन बार चुंहो रोकथाम की आवश्यकता पड़ती है। इसकी रोकथाम के लिए जिंक फास्फाइड या बेरियम कार्बोनेट से बने जहरीले चारे का प्रयोग करें। जहरीला चारा बनाने के लिए जिंक फास्फाइड अथवा बेरियम कार्बोनेट100 ग्राम, गेहूं का आंटा 860 ग्राम, शक्कर 15 ग्राम तथा 25 ग्राम सरसों का तेल मिलाकर बनाया हुआ जहरीला चारा प्रयोग करें।


खीरे की आधुनिक खेती कैसे करें?

मटर की आधुनिक खेती

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Wednesday, November 30, 2016

खीरे की आधुनिक खेती



खीरा
आज के आधुनिक युग में प्रत्येक उन्नत किसान सब्जियों की खेती करके अधिक से अधिक लाभ ले रहा है।खीरे की खेती भी इन में से एक है जो किसानों के लिए काफी फायदेमंद साबित हो रही है।
बाजार में खीरे की अधिक मांग बने रहने के कारण खीरे की खेती किसान भाइयो के लिए बहुत ही लाभदायक है।खीरे का उपयोग खाने के साथ सलाद के रूप में बढ़ता ही जा रहा है।जिससे बाजार में इसकी कीमते भी लगातार बढ़ रही है।इसके साथ ही खीरे की खेती रेतली भूमि में अच्छी होती ऐसे में किसान भाइयो के पास जो ऐसी भूमि है जिसमे दूसरी फसलो का उत्पादन अच्छा नहीं होता है उसी भूमि में खीरे के खेती से अच्छा उत्पादन लिया जा सकता है।



खीरे की खेती के लिए उत्तम जलवायु
खीरा की फसल के लिए शीतोषण एवम समशीतोषण दोनों ही जलवायु अच्छी मानी गयी हैI खीरे के फूल खिलने के लिए 13 से 18 डिग्री सेंटीग्रेट तापमान अच्छा होता है। तथा पौधों के विकास और अच्छी पैदावार के लिए 18 से 24 डिग्री सेंटीग्रेट तापमान की आवश्यकता होती है। खीरे की फसल पर कोहरे का बुरा असर पड़ता है।इसके अलावा अधिक नमी मे इस के फल पर धब्बे पड़ जाते  हैं।
उत्तम मिटटी
खीरे की अच्छी पैदावार के लिए अच्छे जल निकास वाली दोमट एवम बलुई दोमट भूमि उत्तम मानी जाती है। खीरा की खेती के लिए भूमि का पी एच 5.5 से 6.8 तक अच्छा माना गया है। नदियों की तलहटी में भी इसकी खेती अच्छी पैदावार देती है।
खीरे की फसल के  लिए  मैरा या काम रेतली भूमि ठीक है।
खीरे की उन्नत किस्मे
पंजाब नवीन>  पंजाब नवीन खीरे की अच्छी किस्म  है। इस किस्म में कड़वाहट कम होती है। और इसका बीज भी खाने  लायक  होता  है। इसकी फसल 70 दिन मे तुड़ाई लायक होजाती हैं। इसकी औसत पैदावार 40 से 50 कु. / एकड़ तक होती है।
इसके अलावा खीरे की प्रमुख प्रजातियां निम्नलिखित है।
हिमांगी, जापानी लॉन्ग ग्रीन, जोवईंट सेट, पूना खीरा, पूसा संयोग, शीतल, फ़ाईन सेट, स्टेट 8 , खीरा 90, खीरा 75, हाईब्रिड1 व् हाईब्रिड2, कल्यानपुर हरा खीरा इत्यादि प्रमुख है।
खेत की तैयारी
खीरे की फसल के लिए खेत की कोई खास तैयारी  करने की आवश्यकता नही पड़ती है। क्योंकि इसकी फसल के लिए खेत की तैयारी भूमि की किस्म के ऊपर निर्भर होती है। बलुई भूमि के लिये अधिक जुताई की आवश्यकता नहीं होती। 2-3 जुताई से ही खेत तैयार होजाता है। जुताई के बाद खेत में पाटा लगाकर क्यारियां बना लेनी चाहिए । भारी-भूमि की तैयारी के लिये अधिक जुताई की आवश्यकता पड़ती है। बगीचों के लिये भी यह फसल उपयोगी है जोकि आसानी से बुआई की जा सकती है।
खेत की बिजाई
खीरे की फसल के लिए खेतो में बिजाई का समय सही समय फरबरी मार्च है।
बीज की मात्रा :- एक किलो /एकर
बिजाई का ढंग :- बीज को ढाई मीटर की चौड़ी बेड पर  दो दो फुट के फासले  पर बीज सकते  हैं। खीरे की बिजाई उठी हुई मेढ़ो के ऊपर करना ज्यादा अच्छा हैं। इसमें मेढ़ से मेढ़ की दूरी 1 से 1.5 मीटर रखते है। जबकि पौधे से पौधे की दुरी 60 सें.मी. रखते हैं। बिजाई करते समय एक जगह पर कम से कम दो बीज लगाएं।
खाद तथा उर्वरक की उचित मात्रा
खीरे की अच्छी फसल के लिए खेत की तैयारी करते समय ही 6 टन गोबर की अच्छी तरह सड़ी खाद खेत मेें जुताई के समय मिला दें। 20 किलोग्राम नाइट्रोजन, 12 किलोग्राम फास्फोरस व 10 किलोग्राम पोटाश की  मात्रा खीरे के लिए पर्याप्त रहती है। खेत में बिजाई के समय 1/3 नाइट्रोजन, फास्फोरस की पूरी मात्रा तथा पोटाश की पूरी मात्रा डालदे। बची हुई नाइट्रोजन को  दो बार में बिजाई के एक महीने बाद व फूल आने पर खेत की नालियों में डाल कर मिट्टी चढ़ा दें।
खेत की सिंचाई
बरसात में ली जाने वाली फसल के लिए प्राय: सिंचाई की आवश्यकता नही कम ही पड़ती है। यदि वर्षा लम्बे समय तक नहीं होती है तो अवश्य ही सिंचाई कर देनी चाहिए। गर्मी की फसल में सिंचाई की जरूरत समय-समय पर पड़ती रहती है इसके लिए आवश्यकतानुसार 7-8 दिन के अंतराल पर सिंचाई करते रहना चाहिए। बेलो पर फल लगते समय नमी का रहना बहुत ज़रूरी है। अगर खेत में  नमी की कमी हो तो फल कड़वे भी हो सकते हैं।

खरपतवार नियन्त्रण 
किसी भी फसल की अच्छी पैदावार लेने की लिए खेत में खरपतवारो का नियंत्रण करना बहुत जरुरी है। इसी तरह खीरे की भी अच्छी पैदावार लेने के लिए खेत को खरपतवारों से साफ रखना चाहिए। इसके लिए गर्मी में 2-3 बार तथा बरसात में 3-4 बार खेत की निराई-गुड़ाई करनी चाहिए।
फ्लो की तुड़ाई
खीरे के फलों को कच्ची अवस्था में तोड़ लेना चाहिए जिससे बाजार में उनकी अच्छी कीमत मिल सके। फलों को एक दिन छोड़ कर तोड़ना अच्छा रहता है। फलों को तेजधार वाले चाकू या थोड़ा घुमाकर तोड़ना चाहिए ताकि बेल को किसी तरह का नुकसान न पहुंचे।
खीरे की फसल को तोड़ते समय ये नरम होने चाहिए। पीले फल नहीं  होने देना चाहिए।
अगली फसल के लिए खीरे का बीज कैसे तैयार करें ?
खीरे का बीज तैयार करते समय खीरे की 2 किस्मो के बीच काम से काम 800 मीटर की दुरी होनी चाहिए।
जिन पौधें पर सही आकार, प्रकार और रंग के फल न आएं उन पौधों को तुरन्त निकाल देना चाहिए। बीज उत्पादन के लिए जब फल पीला पड़ जाए तथा बाहरी आवरण में दरारें पड़ जाएं उस समय तोड़ लेने चाहिए। फलों को लम्बाई में काटकर गुद्दे से बीज को हाथ से अलग करके साफ पानी से धेएं और बीजो को धूप में सुखाकर उनका भण्डारण करें।
संकर प्रजाति के खीरे का बीज तैयार करना
संकर प्रजाति के खीरे के बीजोत्पादन के लिए मादा गाईनोसियस तथा नर मोनोसियस पैतश्क लाईनों का प्रयोग किया जाता है। मादा तथा नर लाईनों को खेतों में 3:1 के अनुपान में लगाया जाता है। परपरागण के बाद मादा लाईनों से फल तोड़कर फल से संकर बीज निकाला जाता है। मादा लाईनो के प्रतिपादन के लिए 250 पी.पी. एम. सिल्वर नाईट्रेट के घोल का पौधें पर दो बार 2-3 पत्तों व 4-6 वाली अवस्थाओं में छिड़काव किया जाता है जिससे उनमें नर फूल निकल आते हैं तथा मादा गाईनोसियस लाईनों का प्रतिपादन हो जाता है।


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Tuesday, November 8, 2016

मटर की आधुनिक खेती कैसे करे? Kisan Help Room



सब्जियों की खेती करने वाले किसान भाइयो के लिए हम इस लेख में लेकर आए हे मटर की खेती से सम्बंधित जानकारी।
दलहनी सब्जियों की बात करे तो हर मौसम में सब्जी वाली मटर पहले नंबर पर होती है। मटर किसान भाइयो के लिए एक खास फसल है, जिसकी मांग पुरे वर्ष बनी रहती है, क्यों की ये सब्जी के अलावा अन्य पकवानों में भी इस्तेमाल की जाती है।साथ ही इस के हरे पौधों को फल तोड़ाई के बाद उखाड़ कर पशुओं के लिए हरे चारे के तौर पर प्रयोग कर सकते हैं। सब्जी वाली मटर की खेती हमारे देश के मैदानी इलाकों में सर्दियों में और पहाड़ी इलाकों में गरमियों में की जाती है. मध्य प्रदेश, बिहार, उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, पंजाब व हरियाणा राज्यों में बड़े पैमाने पर इस की खेती की जाती है। उत्तर प्रदेश में तो आज बड़े पैमाने पर मटर की खेती की जा रही है। मौजूदा समय में मटर की डिमांड हर मौसम में होने की वजह से परिरक्षण द्वारा इस की डब्बाबंदी का कारोबार बढ़ गया है। ऐसे में जरा सी भी सूझबूझ दिखाने पर किसान भाई सब्जी वाली मटर की खेती कर के भरपूर लाभ ले सकते हैं।



मटर में भरपूर मात्रा में प्रोटीन, कार्बोहाइड्रेट, विटामिन व खनिजलवण पाए जाते हैं।
आइये जानते है मटर की उन्नत खेती कैसे करे?
मटर के लिए खेत का चयन : अम्लीय भूमि सब्जी मटर की खेती के लिए बिल्कुल ठीक नहीं होती है. अच्छे जल निकास वाली बलुई दोमट भूमि जिस का पीएच मान 6 से 7.5 के बीच हो, सब्जी मटर की खेती के लिए सही मानी जाती है।
खेत की तैयारी:  मटर की खेती के लिए खेत का पलेवा कर के पहली जुताई मिट्टी पलट हल से करे इसके बाद  2 जुताइयां देशी हल या कल्टीवेटर से कर के पाटा लगा कर खेत को भुरभुरा व समतल कर लेना चाहिए। 
बुवाई का समय तथा बीज की मात्रा:  मटर की बिजाई का समय अक्तूबर के पहले सप्ताह से ले कर नवंबर के अंतिम सप्ताह तक होता है. अगेती बोआई के लिए 120 से 150 किलोग्राम और मध्य व पछेती बोआई के लिए 80 से 100 किलोग्राम बीज प्रति हेक्टेयर की दर से लगते हैं।

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उत्तम प्रजातियां : किसान भाई अपने इलाके के अनुसार रोगरोधी प्रजातियों का चयन किसी कृषि वैज्ञानिक से सलाह लेने के बाद करें तो बहुत लाभ दायक है, इसके अलावा कुछ उन्नत किस्म की प्रजातियों की जानकारी यहाँ दी जा रही है।
फील्ड मटर
 इस प्रकार की किस्मो का उपयोग साबुत मटर, दाल के लिये, दाने एवं चारे के लिये किया जाता है। इन किस्मो मे प्रमुख रूप से रचना, स्वर्णरेखा, अपर्णा, हंस, जे.पी.-885, विकास, शुभा्र, पारस, अंबिका आदि है।
गार्डन मटर
 इस प्रकार की किस्मो का उपयोग सब्जियो के लिये किया जाता है। 
अगेती किस्मे (जल्दी तैयार होने वाली)
आर्केल:  यह यूरोपियन अगेती किस्म है इसके दाने मीठे होते है इसमें बुवाई के 55-65 दिन बाद फलियाँ तोड़ने योग्य हो जाती है इसकी फलियाँ 7-10 से.मी. लम्बी एक समान होती है प्रत्येक फली में 5-6 दाने होते है हरी फलियों की 70-100 क्विंटल उपज मिल जाती है इसकी फलियाँ तीन बार तोड़ी जा सकती है इसका बीज झुर्री दार होता है।
बोनविले:  यह जाति अमेरिका से लाई गई है इसका बीज झुर्री दार होता है यह मध्यम उचाई की सीधे उगने वाली जाति है यह मध्यम समय में तैयार होने वाली जाति है इसकी फलियाँ बोवाई के 70-75 दिन बाद तोड़ने योग्य हो जाती है फूल की शाखा पर दो फलियाँ लगती है इसकी फलियों की औसत पैदावार 130-140 क्विंटल प्रति हे. तक प्राप्त होती है।
अर्ली बैजर:  यह किस्म संयुक्त राज्य अमेरिका से लाई गई है यह अगेती किस्म है बुवाई के 65-70 दिन बाद इसकी फलियाँ तोड़ने केलिए तैयार हो जाती है फलियाँ हलके हरे रंग की लगभग 7 से.मी. लम्बी तथा मोटी होती है दाने आकार में बड़े ,  मीठे व झुर्रीदार होते है हरी फलियों की औसत उपज 70-100 क्विंटल प्रति हे. होती है।
अर्ली दिसंबर:  टा. 21 व अर्ली बैजर के संस्करण से तैयार की गई है यह अगेती किस्म है 55-60 दिनों में तोड़ने के लिए तैयार हो जाती है फलियों की लम्बाई 6-7 से.मी. व रंग गहरा हरा होता है हरी फलियों की औसत उपज 70-100 क्विंटल प्रति हे. हो जाती है।
असौजी:  यह एक अगेती बौनी किस्म है इसकी फलियाँ बोवाई के 55-65 दिन बाद तोड़ने योग्य हो जाती है इसकी फलियाँ गहरे हरे रंग की 5-6 से. मी. लम्बी व दोनों सिरे से नुकीली , लम्बी होती है प्रत्येक फली में 5-6 दाने होते है हरी फलियों की औसत उपज 90-100 क्विंटल प्रति हे. होती है।
पन्त उपहार:  इसकी बुवाई 25 अक्टूम्बर से 15 नवम्बर तक की जाती है और इसकी फलियाँ बुवाई से 65-75 दिन बाद तोड़ने योग्य हो जाती है।
जवाहर मटर :  इसकी फलियाँ बुवाई से 65-75 दिन बाद तोड़ने योग्य हो जाती है यह मध्यम किस्म है फलियों की औसत लम्बाई 7-8 से. मी. होती है और प्रत्येक फली में 5-7 बीज होते है फलियों में दाने ठोस रूप में भरे होते है हरी फलियों की औसत पैदावार 130-140 क्विंटल प्रति हे. होती है।
मध्यम किस्मे
T9:   यह भी मध्यम किस्म है इसकी फलियाँ 75 दिन में तोड़ने लायक हो जाती है फसल अवधि 120 दिन है पौधों का रंग गहरा हरा फूल सफ़ेद व बीज झुर्रीदार व हल्का हरापन लिए हुए सफ़ेद होते है फलियों की पैदावार 70-100 क्विंटल प्रति हे. पैदावार होती है।
T56:  यह भी मध्यम अवधि की किस्म है पौधे हलके हरे , सफ़ेद बीज झुर्रेदार होते है हरी फलियाँ 75 दिन में तोड़ने लायक हो जाती है प्रति हे. 70-95 क्विंटल हरी फलियाँ प्राप्त हो जाती है।
NP29:  यह भी अगेती किस्म है फलियाँ 75-85 दिन में तोड़ने लायक हो जाती है इसकी फसल अवधि 100-115 दिन है बीज झुर्रीदार होते है। हरी फलियों की औसत पैदावार 110-120 क्विंटल प्रति हे. है।
पछेती किस्मे (देरी से तैयार होने वाली):  ये किस्मे बोने के लगभग 100-110 दिनो बाद पहली तुड़ाई करने योग्य हो जाती है जैसे- आजाद मटर-2, जवाहर मटर-2 आदि।     
बीजोपचार :  जड़सड़न, तनासड़न, एंथ्रेक्नोज, बैक्टेरियल ब्लाइट व उकठा बीमारियों से बचाव के लिए बीजों को 2 ग्राम कार्बेंडाजिम प्रति किलोग्राम बीज के हिसाब से उपचारित कर के बोआई करें। पीएसबी कल्चर व राइजोबियम कल्चर से बीजों को उपचारित कर के बोने से 10 से 15 फीसदी तक उत्पादन अधिक होता है। इस के लिए 1.5 किलोग्राम राइजोबियम कल्चर को 10 फीसदी गुड़ के घोल में मिला कर प्रति किलोग्राम की दर से बीजों को अच्छी तरह से उपचारित कर के व सुखा कर उसी दिन बोआई कर देनी चाहिए. उकठा रोग से बचाव के लिए 4-5 ग्राम ट्राइकोडर्मा फफूंदनाशक से प्रति किलोग्राम के हिसाब से बीजों को उपचारित करना चाहिए।
बीज रोपाई:  बुवाई सीडड्रिल से करें या देशी हल के पीछे कूंड़ों में सीधी कतारों में करें। जल्दी तैयार होने वाली किस्मों को कतार से कतार 30 सेंटीमीटर की दूरी पर और मध्यम अवधि की प्रजातियों को 45 सेंटीमीटर की दूरी पर बोएं. पौध से पौध की दूरी 10-15 सेंटीमीटर रखनी चाहिए। बीजों की बोआई 5-7 सेंटीमीटर गहराई पर करें।
खाद तथा उर्वरक : सब्जी मटर की खेती में मोटे तौर पर 20 टन खूब सड़ी हुई एफवाईएम (सड़ी गोबर की खाद), 25 किलोग्राम नाइट्रोजन, 50-70 किलोग्राम फास्फोरस और 50 किलोग्राम पोटाश युक्त उर्वरक प्रति हेक्टेयर देना बेहतर होता है. नाइट्रोजनयुक्त उर्वरकों का ज्यादा इस्तेमाल नाइट्रोजन स्थिरीकरण और गांठों के निर्माण में बाधा पहुंचाता है. मटर की खेती में फास्फेटिक उर्वरक अच्छा नतीजा देता है. इस से गांठों का निर्माण अच्छा होता है. नाइट्रोजन की आधी मात्रा और फास्फोरस व पोटाश की पूरी मात्रा बोआई के 25-30 दिनों बाद टाप ड्रेसिंग के रूप में देनी चाहिए।
खरपतवार नियंत्रण :  बुवाई के समय ही खरपतवारों का रासायनिक विधि द्वारा नियंत्रण करना चाहिए। इस के लिए पेडीमेथलीन 30 ईसी की 3.3 लीटर मात्रा को 600-800 लीटर पानी में घोल कर बोआई के 2 दिन बाद प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़काव करें या  2.25 लीटर वासालीन को 1000 लीटर पानी में घोल कर प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़काव करें. बोआई के 25-30 दिनों बाद निराईगुड़ाई करने से खरपतवार नियंत्रण के साथ ही साथ जड़ों को हवा भी मिल जाती है.
सिंचाई : पहली सिंचाई फूल आते समय करनी चाहिए. यदि बारिश हो जाए तो सिंचाई न करें. दूसरी सिंचाई फलियां बनते समय करनी चाहिए. सूखे इलाकों में बौछारी सिंचाई बेहतर होती है.
मटर में लगने वाले प्रमुख रोग तथा इनसे बचाव
चूर्णिल आसिता : यह एक बीजजनित बीमारी है. यह बीमारी तना, पत्तियों व फलियों को प्रभावित करती है. इस बीमारी में पत्तियों पर हलके गोल निशान बन जाते हैं, जो सफेद पाउडर (चूर्ण) के रूप में पत्तियों को ढक देते हैं. इस के कारण बाद में सभी पत्तियां गिर जाती हैं. इस की रोकथाम के लिए 2-3 किलोग्राम गंधक का चूर्ण 600-800 लीटर पानी में घोल कर प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़काव करें।
उकठा (फ्यूजेरियम विल्ट) :  यह फफूंद से होने वाली बीमारी है. इस से पौधों की पत्तियां नीचे से ऊपर की ओर पीली पड़ने लगती हैं और अंत में पूरा पौधा सूख जाता है. यह बीमारी गरमी बढ़ने के कारण बढ़ने लगती है. इस से बचाव हेतु फसलचक्र को अपनाना चाहिए। जिस में ज्वार, बाजरा व गेहूं की फसलें शामिल हो सकती हैं। खेत में हरी खाद के साथ 1 सप्ताह के अंदर 5 किलोग्राम ट्राइकोडर्मा पाउडर प्रति हेक्टेयर की दर से प्रयोग करना चाहिए. बोआई से पहले बीजों को 2.5 ग्राम कार्बंडाजिम से प्रति किलोग्राम की दर से उपचारित कर लेना चाहिए।
रस्ट (गेरुई) : यह रोग फफूंद द्वारा फैलता है. यह नम स्थानों पर ज्यादा फैलता है. शुरू में पत्तियों की निचली सतह पर छोटेछोटे गेरुई या पीले रंग के उड़े हुए धब्बे बनते हैं। धीरेधीरे इन धब्बों का रंग भूरा लाल पड़ने लगता है। कई धब्बों के आपस में मिलने से पत्तियां सूख जाती हैं। इस के असर से पौधे जल्दी सूख जाते हैं और उपज कम हो जाती है। इस रोग से बचाव के लिए सब से पहले रोगी पौधों को नष्ट कर देना चाहिए। उस के बाद हेक्साकोनाजोल की 1 मिलीलीटर मात्रा को 3 लीटर पानी में घोल कर या विटरेटीनाल की 1 ग्राम मात्रा को 2 लीटर पानी में घोल कर 1 से 2 बार छिड़काव करें।
एंथ्रेक्नोज : यह भी एक बीज जनित बीमारी है. इस बीमारी में पत्तियों के ऊपर पीले से काले रंग के सिकुड़े हुए धब्बे बन जाते हैं, जो बाद में पूरी पत्ती को ढक लेते हैं. छोटे फलों पर काले रंग के धब्बे बन जाते हैं और रोगी फलियां सिकुड़ कर मर जाती हैं। यह बीमारी बीजों के जरीए एक मौसम से दूसरे मौसम में जाती है. इस से बचाव के लिए बोआई से पहले बीजों को 2.5 ग्राम कार्बंडाजिम दवा से प्रति किलोग्राम बीज की दर से उपचारित करना चाहिए। रोगरोधी किस्मों का प्रयोग करना चाहिए. फूल आने के बाद 1 ग्राम कार्बंडाजिम का 1 लीटर पानी में घोल बना कर छिड़काव करें।
बैक्टेरियल ब्लाइट : यह एक बीज जनित बीमारी है, जो नमी वाले वातावरण में ज्यादा फैलती है. इस रोग में डंठल के नीचे की पत्तियों व तनों पर एक पनीला धब्बा बन जाता है। सफेद से रंग का स्राव भी दिखता है. धीरेधीरे प्रभावित हिस्सा भूरा होने लगता है. इस से बचाव के लिए रोग रहित बीज का इस्तेमाल करना चाहिए और बीजशोधन भी कर लेना चाहिए। फसल प्रभावित होने पर स्ट्रेप्टोसाइक्लिन केमिकल का छिड़काव फायदेमंद होता है।
मटर की फसल को लगने वाले प्रमुख कीट तथा नियंत्रण
माहू :  इस कीड़े का प्रकोप जनवरी के महीने में ज्यादा होता है. यह कीड़ा पत्तियों और कोमल टहनियों का रस चूसता है. इस से बचाव के लिए मैलाथियान 50 ईसी कीटनाशक दवा की 1.5 मिलीलीटर मात्रा को 1 लीटर पानी में घोल कर 10-10 दिनों के अंतराल पर छिड़काव करना चाहिए।
लीफ माइनर (पत्ती में सुरंग बनाने वाला कीट) :  यह कीट पौधों की पत्तियों में सफेद धागे की तरह बारीक सुरंग बनाता है। इस के प्रकोप से पत्तियां सूख जाती हैं. बचाव के लिए सुरंग बनाने वाले कीड़ों से प्रभावित पत्तियों को सूंड़ी व कृमिकोश सहित तोड़ कर जमीन में कहीं दूर गाड़ देना चाहिए।
फलीछेदक :  यह कीट फलियों में छेद कर के दानों को खाता रहता है. इस कीड़े के असर वाली फलियां रंगहीन, पानीयुक्त व दुर्गंधयुक्त हो जाती हैं. इस से बचाव के लिए थायोडान नामक दवा की 2 मिलीलीटर मात्रा का 1 लीटर पानी में घोल बना कर छिड़काव करें।
तोड़ाई :  मटर की फसल से ज्यादा आमदनी लेने के लिए समय से तोड़ाई करना जरूरी होता है. मटर की तोड़ाई हाथ से की जाती है. तोड़ाई के समय पौधों को नुकसान नहीं पहुंचना चाहिए। फलियां भरी हुई व मुलायम ही तोड़नी चाहिए. तोड़ाई सुबह या शाम को करें. 10 दिनों के अंतर पर 3-4 बार तोड़ाई करनी चाहिए।
भंडारण : किसान भाइयो को बीज भंडारण के लिए  निम्न बातों का ध्यान रखना चाहिए।
1  बीजों में नमी की मात्रा 9 फीसदी से कम होनी चाहिए। ज्यादातर कीट इतनी कम नमी में प्रजनन नहीं कर पाते।
2 नए बीजों को रखने से पहले अच्छी तरह साफ कर के कीटनाशी द्वारा कीट रहित कर लेना चाहिए।
3  बीज भंडारण के लिए नए बैग इस्तेमाल करने चाहिए।
4  कीट का प्रकोप होने पर 3-5 ग्राम की एल्यूमीनियम फास्फाइड की 2 गोलियां प्रति टन की दर से 3-5 दिनों तक रख कर बीजों को कीट रहित करना चाहिए।

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Thursday, October 20, 2016

पॉलीहाउस में आधुनिक खेती हे मुनाफे का सौदा,फूलो और सब्जियों की फसल से कई गुना अधिक आय लेसकते है किसान



हरितगृह या ग्रीनहाउस (पॉलीहाउस भी कहा जाता है) यह एक इमारत है, जिसके अंदर फसल या फूल पौधे उगाये जाते हैं।
ग्रीनहाउस कई तरह की आवरण सामग्रियों जैसे कांच या प्लास्टिक की छत के साथ साथ ही कांच या प्लास्टिक की दीवारों के साथ बनी एक संरचना है। ग्रीनहाउस के अंदर का तापमान अधिक होता है। क्योंकि सूर्य द्वारा भेजे जा रहे दृश्य सौर विकिरण को पौधों, मिट्टी और भवन के भीतर स्थित अन्य चीजों द्वारा अवशोषित किया जाता है।

green house 

 कांच या प्लास्टिक इस विकिरण के लिए पारदर्शी है। ग्रीनहाउस के भीतर गरम संरचनाएं और पौधे इस ऊर्जा को फिर से अवरक्त में विकीर्ण करते हैं। जिससे कांच आंशिक रूप से अपारदर्शी हो जाता है और वह ऊर्जा ग्रीनहाउस के भीतर कैद हो जाती है। हालांकि, प्रवाह के कारण उष्मा का कुछ नुकसान होता है, लेकिन इससे ग्रीन हाउस के अंदर ऊर्जा (और इस तरह तापमान) में विशुद्ध वृद्धि होती है। गर्म आंतरिक सतहों के ताप से गरम हुई हवा को छत और दीवार द्वारा ईमारत के अन्दर बरकरार रखा जाता है। इन संरचनाओं का आकार छोटे से शेड से लेकर बहुत बड़ी इमारतों तक हो सकता हैं।
ग्रीनहाउस को कांच के ग्रीनहाउस और प्लास्टिक ग्रीनहाउस के रूप में विभाजित किया जा सकता है।
प्लास्टिक में ज्यादातर पीई (PE) फिल्म और पीसी (PC) या पीएमएमए (PMMA) की कई दीवारों वाली चादरें प्रयुक्त की जाती है।

कांच के व्यावसायिक ग्रीनहाउस में अक्सर सब्जियों या फूलों के लिए उच्च तकनीक वाली उत्पादन सुविधाएं होती हैं। कांच के ग्रीनहाउस स्क्रीनिंग स्थापना, गर्म करने, ठंडा करने, प्रकाशमान करने जैसे उपकरणों से परिपुर्ण होते हैं और यह एक कंप्यूटर द्वारा स्वचालित रूप से नियंत्रित हो सकता है।
ग्रीनहाउस के लिए इस्तेमाल किया कांच हवा के प्रवाह के लिए एक बाधा के रूप में काम करता है और इसका प्रभाव ग्रीनहाउस के भीतर ऊर्जा को बांधकर रखने के रूप में पड़ता है, जो पौधों और इसके अंदर की जमीन दोनों को गर्म करता है। यह जमीन के पास की हवा को गर्म करता है और इस हवा को उपर उठने और बहकर दूर चले जाने से रोका जाता है। एक ग्रीनहाउस की छत के पास एक छोटी सी खिड़की खोलकर इसका प्रदर्शन किया जा सकता है। क्योंकि तापमान उल्लेखनीय रूप से काफी नीचे आ जाता है। यह सिद्धांत ठंडा करने की ऑटोवेंट स्वचालित प्रणाली पर आधारित है। एक अति लघु ग्रीनहाउस एक ठंडे फ्रेम के रूप में जाना जाता है।
ग्रीनहाउस का चलन भारत में भी तेजी से बढ़ रहा है। बहुत से किसान आज ग्रीनहाउस बनवाकर उसमे आधुनिक खेती कर रहे है तथा अधिक से अधिक लाभ भी कमा रहे है।
ग्रीनहाउस में खीरा, शिमला मिर्च, टमाटर आदि सब्जियों के साथ साथ विदेशी फूलो की खेती अधिक लाभप्रद है।

पॉलीहाउस में सब्जियों की खेती 

संरक्षित खेती मे किसान चुनिंदा सब्जिया बेमौसम मे भी उगाकर सामान्य से कई गुना अधिक लाभ ले रहे है। 

पॉलीहाउस में खीरे की खेती 

हमारे देश मे खीरे का उत्पादन अभी तक खुले वातावरण में ही ग्रीष्मकालीन फसल के रूप में किया जाता रहा हैं। खुले वातावरण मे फल मक्खी के अत्यधिक प्रकोप के कारण खीरे की अच्छी पैदावार लेने के लिए किसानों को कई समस्याओं का सामना करना पड़ रहा हैं। सर्दी के मौसम व आरम्भिक बसंत व ग्रीष्म ऋतू में खीरे की उपलब्धता बाजार में कम होने के कारण इसकी खेती किसानों को इस समय ज्यादा लाभप्रद हो सकती हैं।
लेकिन किसान भाई पालीहाउस मे कम खर्च पर खीरे की दो फसलें ऊगा सकते हैं। फरवरी के महीने में बुवाई की गई फसल अप्रेल तक तैयार हो जाती है। इस समय बाजार में खीरे के भाव अधिक मिलता हैं। पॉलीहाउस की जाने वाली खेती पर कीटनाशकों व फफूंदनाशकों का छिड़काव किये बिना ही अच्छा फसल उत्पादन कर सकते हैं।

पॉलीहाउस में खीरे के सफल उत्पादन के लिए किये जाने वाले कार्य

पॉलीहाउस में खीरे का अधिक उत्पादन लेने के लिए किसान पार्थिनोकार्पिक किस्में जिनमे बिना परागकण के ही फल तैयार होते हैं जैसे की क्यानख, पी.सी.पी.एच.-5, इसेटिस, मल्टीना, मनसोर आदि किस्मो का ही चुनाव करे।
पॉलीहाउस की ऊंचाई के अनुसार एक या दो टहनियां लेकर रस्सी या सुतली की सहायता से आगे बढ़ने दे। तथा अतिरिक्त टहनियों की कटाई-छटाई करते रहें।
पहली पांच गांठों तक फूलों को निकाल दें।

फसल सिंचाई

पॉलीहाउस मे खीरे की अधिक पैदावार के लिए ड्रिप विधि से सिंचाई करें तथा तरल खाद पौधे लगाने के तीन सप्ताह बाद भूमि के उपजाऊपन के अनुसार सप्ताह में एक या दो बार दें तथा अंतिम तोड़ाई से 15 दिन पहले तरल खाद देना बंद कर दें।

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Tuesday, August 16, 2016

विदेशी पौधो की सप्लाई ने बना दिया करोडपति,किसान इनका बाग लगाकर करसकते हे अधिक कमाई



राजस्थान के तरंजन चौधरी ने अपनी महनत और लगन से बाड़मेर राजस्थन के रेतीले इलाकों में उन फलों को उगाया है जो पहले सिर्फ विदेशी जमीन पर उगते थे।
तरंजन चौधरी की बदौलत बाड़मेर आज इन पौधों की नर्सरी का हब बन चुका है। तरंजन विदेशों से इन पौधों को लाकर देश के कई अन्नय राज्यों में किसानों को दे रहे हैं।कई पौधों के तो वो भारत में अकेले सप्लायर हैं। इससे तरंजन को तो सालाना करोड़ों की आमदनी होती ही है।साथ देश के किसान भी विदेशी फलो के पौधे लगाकर लाखो कमा रहे है।


तरंजन चौधरी राजस्थान के बाड़मेर जिले के रहने वाले है।
तरंजन ने छह साल पहले एक खबर में विदेशों मे पौधारोपण की कई नयी किस्मों के बारे में पढ़ा, जिसमे उन्होंने थाई एप्पल बेर, ग्राफ्टेड चीकू, ग्राफ्टेड आम, अंजीर, पिस्ता, थाई अमरुद, बिना बीज नींबू, गुग्गल, ड्रैगन, अनार, कलमी गुन्दा, हाइब्रिड शीशम, एस मोगी, दिव्य चन्दन की तमाम नयी किस्मों के बारे में जाना।

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ये नयी किस्में उनके अपने ही शहर में पैदा हों इसके लिए उन्होंने कई संस्थानों में जाकर प्रशिक्षण भी प्राप्त किया। तरंजन चौधरी बताते हैं, विदेशों में उगने वाले पौधों की बागवानी से अच्छी कमाई तो हो सकती थी, लेकिन हमारे लिये ये जानना जरुरी था कि हमारे देश की जलवायु में ये पौधे पनपेंगे या नहीं? इसलिए हमने 2010 में देश के 120 इलाकों की मिट्टी, बारिश और समुद्र के पानी के सैंपल की जांच कराई। जांच बाद हमें पता चला कि ये फल हमारे देश की जलवायू में पैदा हो सकते हैं।"
वो आगे बताते हैं, सैंपल के तौर पर हमने कुछ पौधे इजराइल,थाईलैंड, कैलोफोर्नियाँ से मंगाना शुरू कर दिया, प्रयोग सफल रहा तो फिर इसी काम को शुरु कर दिया। अब मैं नर्सरी का स्टॉक करता हूं, विदेशों से पौधे मंगवाता हूं और उन्हें देश के कोने-कोने में किसानों को भेजता हूं।"
तरंजन चौधरी द्वरा लाई गयी इन नयी प्राजातियों में एक प्रजाति एप्पल बेर की है, जिसे इस वक्त लगाया जा सकता है। थाईलैंड के इस पौधे को जून से लेकर दिसंबर तक कभी भी लगाया जा सकता हैं। राजस्थान में इस समय एप्पल बेर की खेती लगभग 500 हेक्टेयर भूमि पर हो रही है। एप्पल बेर का पौधा -5 डिग्री से 55 डिग्री तक का तापमान सहन करने की क्षमता रखता है।
तरंजन बताते हैं, एक बार एप्पल बेर लगाने के बाद पचास साल तक इससे आमदनी की जा सकती है। खेत में पौधा लगाने के 14 महीने बाद पौधे पर फल आने शुरू हो जाते हैं। पहले साल थोड़ा कम पैदावार होती है लेकिन दूसरी और तीसरी साल से पैदावार मे बढोतरी होने के साथ किसान लाखों रुपए सालाना  कमा सकते हैं।
उत्तरप्रदेश में एप्पल बेर की खेती के बारे में पूछने पर तरंजन सिंह के भाई घेवर सिंह बताते हैं कि बाग लगाई जा सकती है लेकिन खर्च थोड़ी ज्यादा आता है। अगर राजस्थान में एक बीघे में 20 हजार का खर्च आता है तो यूपी में 50 हजार खर्च आएगा।  इस बाग से पहले साल 30 हजार,दूसरे और तीसरे साल में दो से ढाई लाख का मुनाफा हो सकता है।

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फलदार पौधों के साथ-साथ तरंजन फर्नीचर में इस्तेमाल होने वाले पौधे भी विदेशो से मंगाने लगे हैं। पेशे से कंप्यूटर शिक्षक उनके भाई घेवर सिंह राजपुरोहित भी इसी पेशे में हाथ आजमा रहे हैं। घेवर सिंह बताते हैं कि भारत में पहली बार कैलीफोर्निया और थाई लैब द्वारा तैयार एन्टीडिजीज,एन्टीक्लाईमेट, हाईब्रिड किस्म, टिश्यू कल्चर, ग्राफ्टेड और उच्च तकनीक से तैयार फलों एवं इमारती लकड़ी के पौधों की नर्सरी तैयार की है। वो अपनी नर्सरी के इन पौधों को महाराष्ट्र, राजस्थान, हरियाणा, पंजाब, मध्प्रदेश और दिल्ली भेजते हैं। 
कैसे लगाएं एप्पल बेर का बाग
जून के महीने से लेकर दिसम्बर महीने तक खेत में एप्पल बेर किसी भी समय लगाया जा सकता हैं। 15/13 के हिसाब से गढ्ढे से गढ्ढे की दूरी,2/2 का गढ्ढा खोदना हैं। 8-10 दिन तक इसे खुला छोड़ने के बाद इसमे एप्पल बेर के पौधे लगा सकते हैं। एक बीघे में 100 पौधे लगाये जा सकते हैं। एक पौधे की कीमत 140 रुपये है। पौधे को पानी और खाद आदि देने के लिए टिप्स तरंजन की टीम आजीवन किसानों को देगी। थाई एप्पल बेर में कांटे नहीं होते हैं। इसमें 11 से 14वें महीने में उत्पादन शुरू हो जाता है। सेब जैसे स्वाद वाले इस फल का वजन 100 ग्राम तक होता है। महाराष्ट्र में इस फल की औसत कीमत 40-45 रुपये प्रति किलो है।

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Monday, August 8, 2016

गाजर की उन्नत खेती / Kisan Help Room



गाजर मनुष्य के आहार के लिए मे प्रयोग होने वाली महत्तवपूर्ण सब्जी है। गाजर को सलाद के रूप मे खाने के साथ-साथ परकारी पकाकर,जूस निकाल कर और कई प्रकार की मिठाईयो के रूप मे भी गाजर का प्रयोग पूरे भारतवर्ष मे किया जाता है।
गाजर की खेती पूरे भारतवर्ष में की जाती है। गाजर में कैरोटीन एवं विटामिन ए पाया जाता है जो कि मनुष्य के शरीर के लिए बहुत ही लाभदायक है नारंगी रंग की गाजर में कैरोटीन की मात्रा अधिक पाई जाती है गाजर की हरी पत्तियो में बहुत ज्यादा पोषक तत्व पाये जाते है जैसे कि प्रोटीन, मिनिरल्स एवं विटामिन्स आदि। गाजर की पत्तिया जानवरो को खिलाने पर जानवरो को बहुत लाभ पहुचाती है गाजर की हरी पत्तियां मुर्गियों के चारे के रूप मे भी प्रयोग की जाती है। भारत मे गाजर मुख्य रूप से उत्तर प्रदेश, असाम, कर्नाटक, आंध्रा प्रदेश, पंजाब एवं हरियाणा में उगाई जाती हैI


गाजर के लिए उपयुक्त जलवायु
गाजर की खेती के लिये मूलत ठंडी जलवायु की अवश्यक्ता होती है इसका बीज को अंकुरित होने के लिए 7.5 से 28 डिग्री सेल्सियस तापमान अधिक उपयुक्त होता है। जड़ों कि बृद्धि और उनका रंग तापमान से बहुत अधिक प्रभावित होता है 15-20 डिग्री तापमान पर जड़ों का आकार छोटा होता है परन्तु रंग सर्वोत्तम होता है। गाजर की विभिन्न किस्मों पर तापमान का प्रभाव भी भिन्न-भिन्न पडता है। विलायती किस्मों के लिए 4-6 सप्ताह तक 4.8 -10 डिग्री सेन्टी ग्रेड तापमान  जड़ बनते समय चाहिए होता है।
उत्तम मिट्टी
गाजर की खेती दोमट मिट्टी सबसे अच्छी मानी जाती है। बुआई के समय खेत की मिट्टी अच्छी तरह से भुर-भुरी होनी चाहिए। क्यू कि भुर-भुरी मिट्टी मे गाजर की जड़ें अच्छी बनती है। भूमि में पानी का निकास होना भी अतिआवश्यक हैI
खेत की तैयारी
गाजर की अच्छी फसल प्राप्त करने के लिए खेत को अच्छे से तय्यार करना भी जरूरी होता है।
सबसे पहले खेत की विक्ट्री हल से 2 बार जुताई करना चाहिये। इसके बाद  3-4 जुताई देशी हल से करें प्रत्येक जुताई के बाद पाटा अवश्य लगाएं, ताकि मिटटी भुर-भुरी हो जाए। मिट्टी करीब 30 सेमी गहराई तक भुर-भुरी होना चाहिए।

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गाजर की उन्नत क़िस्में
गाजर की बहुत सी देशी तथा विदेशी किस्मे है जिनमे से कुछ प्रमुख किस्मे निम्नलिखित है।
पूसा केसर
पूसा केसर लाल रंग की होती हे जो गाजर की उत्तम प्रजाति है। इसकी पत्तियाँ छोटी तथा जड़ें लम्बी, आकर्षक लाल रंग की होती है। इसका केन्द्रीय भाग  संकरा होता है। इसकी फ़सल लग-भग  90-110 दिन में तैयार हो जाती है। पूसा केसर की पैदावार300-350 क्विंटल प्रति हेक्टेअर तक होती है।
पूसा मेघाली
यह नारंगी गूदे, छोटी टॉप तथा कैरोटीन की अधिक मात्रा वाली संकर प्रजाति है। इसकी फ़सल बुवाई से 100-110 दिन में तैयार हो जाती है।
पैदावार 250-300 क्विंटल प्रति हेक्टेअर होती है.
पूसा यमदाग्नि
यह प्रजाति आई० ए० आर० आई० के क्षेत्रीय केन्द्र कटराइन द्धारा विकसित की गयी है। इसकी फसल 90-105 दिन मे तैयार हो जाती है।
इसकी पैदावार 150-200 क्विंटल प्रति हेक्टेअर होती है.
नैन्टस
इस क़िस्म की जडें बेलनाकार तथा नांरगी रंग की होती है। जड़ के अन्दर का केन्द्रीय भाग मुलायम, मीठा होता है। इसकी फसल 110-112 दिन में तैयार हो जाती है।
इसकी पैदावार 100-125 क्विंटल प्रति हेक्टेअर तक होती है।

बुआई के लिए अनुकूल समय
मैदानी इलाकों में गाजर की एशियाई क़िस्मों की बुआई के लिए अगस्त से अक्टूबर तक का समय तथा यूरोपियन क़िस्मों की बुआई के लिए अक्टूबर से नवम्बर का समय अनुकूल होता है।
बुआई के लिए बीज की मात्रा
एक हेक्टेअर क्षेत्रफल के लिए 6-8 कि०ग्रा० गाजर के बीज की आवश्यकता होती है।
बीज रोपाई तथा सिचाई
गाजर के बीजो का रोपण या तो छोटी-छोटी समतल क्यारियों में करते हे। या फिर 30-40 से०मी० की दूरी पर मेंढ बनाकर उसके ऊपर करते हैं।
बुआई के समय खेत में पर्याप्त नमी होनी चाहिए. पहली सिंचाई बीज उगने के बाद करें. शुरू में 8-10 दिन के अन्तर पर तथा बाद के 12-15 दिन के अन्तर पर सिंचाई करनी चाहिये। बुवाई के बाद नाली में पहली सिंचाई करनी चाहिए जिससे मेंड़ों में नमी बनी रहे बाद में 8 से 10 दिन के अंतराल पर सिंचाई करते रहना चाहिएI गर्मियों में 4 से 5 दिन के अंतराल पर सिंचाई करनी चाहिएI खेत कभी भी सूखना नहीं चाहिए नहीं तो पैदावार कम हो जाती हैI
खाद तथा उर्वरक
गाजर की अच्छी फसल के लिए खाद की सही मात्रा तथा सही समय पर देना अवश्यक है।।एक हेक्टेअर खेत के लिए लगभग 25-30 टन सड़ी हुई गोबर की खाद अन्तिम जुताई के समय तथा 30 कि०ग्रा० नाइट्रोजन व 30 कि०ग्रा० पौटाश प्रति हेक्टेअर की दर से बुआई के समय डालें. बुआई के 5-6 सप्ताह बाद 30 कि०ग्रा० नाइट्रोजन को ट्रॉप ड्रेसिंग के रूप मे देना चाहिये।

नाडेप विधि से किसान अच्छी क्वॉलिटी की जैविक खाद घर पर ही तैयार कर रहे है।

कीट तथा खरपतवार नियंत्रण 
गाजर कि फसल के साथ अनेक प्रकार के खरपतवार भी उग आते है , जो भूमि से नमी और पोषक तत्व लेते है , जिसके कारण गाजर के पौधों का विकास और बढ़वार पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है अत: इन्हें खेत से निकाल देना अति आवश्यक है। निराई करते समय पक्तियों से अनावश्यक पौधे निकाल कर पौधो के मध्य कि दुरी अधिक कर देनी चाहिए। सथ ही वृद्धि करती हुई जड़ों के समीप हल्की निराई गुड़ाई करते रहना चाहिए ।
गाजर कि फसल पर भिम्न प्रकार के कीड़े मकोड़ों का प्रकोप होता है। मुख्य रूप से गाजर कि विविल : छ धब्बे वाला पत्ती का टिड्डा । इसकी रोकथाम के लिए
नीम का काढ़ा बना इसे कर पम्प द्वारा 10 - 15 दिन के अंतराल पर खेत मे तर बतर छिडकाव करे ।
प्रमुख रोग तथा इनका नियंत्रण 
आद्र विगलन 
यह रोग पिथियम अफनिड़रमैटम नामक फफूंदी के कारण होता है। इस रोग के कारण गाजर के बीज  अंकुरित होते ही पौधे संक्रमित हो जाते है।  कभी-कभी अंकुर भूमि से बाहर नहीं निकाल पाता है और बीज  पूरा ही सड जाता है तने का निचला भाग जो भूमि कि सतह से लगा रहता है , सड गल जाता है जिसके फलस्वरूप पौधे वही से टूट कर नीचे गिर जाते है पौधों का अचानक गिर पड़ना और सड जाना आद्र विगलन का प्रमुख कारण है।
रोकथाम
1. बीज को बोने से पूर्व गौ मूत्र से उपचारित करें।
2. हल्की सिंचाई करनी चाहिए।
जीवाणु मृदु सडन और बिगवड रोग 
यह रोग इर्विनिया कैरोटोवोरा नामक जीवाणु के कारण फैलता है इस रोग का प्रकोप विशेष रूप से गूदेदार जड़ों पर होता है इस रोग के कारण जड़े सड़ने लगती है ऐसी भूमि जिनमे जल निकास कि अच्छी व्यवस्था नहीं होती है। या निचले क्षेत्र में बोई गई फसल पर यह रोग अधिक लगता है।
रोकथाम 
1. खेत में जल निकास का उचित प्रबंध करना चाहिए।
2.   नीम का काढ़ा बनाकर
 25 ग्राम ताजा हरा नीम कि पत्ती तोड़ कर कुचल कर पिस कर किलो 50 लीटर पानी में मिलाकर उबलाते है जब पानी 20 -25 लीटर रह जाये तब उतार कर ठंडाकर आधा लीटर प्रति पम्प पनी में मिलाकर प्रयोग करे।
3.  गौ मूत्र का छिडकाव
10 लीटर देसी गाय का गौ मूत्र लेकर पारदर्शी कांच के या प्लास्टिक के बर्तन में १५ -२० दिन धुप में रखने के बाद आधा लीटर प्रति पम्प पानी मिलाकर तर बतर कर फसलो पर छिड़काव करे |
गाजर की खुदाई एवं पैदावार
गाजर की जड़ों की खुदाई तब करनी चाहिए जब वे पूरी तरह विकसित हो जाए. खेत में खुदाई के समय पर्याप्त नमी होनी चाहिए। जड़ों की खुदाई फरवरी में करनी चाहिए। बाजार भेजने से पूर्व जड़ों को अच्छी तरह धो लेना चाहिए।
गाजर की पैदावार क़िस्म पर निर्भर करती है। एसियाटिक क़िस्में अधिक उत्पादन देती है। पूसा क़िस्म की पैदावार लगभग 300-350 क्विंटल प्रति हेक्टेअर, पूसा मेधाली 250-300 क्विंटल प्रति हेक्टेअर जबकि नैन्टिस क़िस्म की पैदावार 100-112 क्विंटल प्रति हेक्टेअर तक होती है।



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किसान विनोद सिंह केले की नर्सरी से 30 दिन मे कमाते है 5 लाख: Kisan Help Room



जहॉ एक तरफ हर कोई खेती को घाटे का सौदा बताता है। किसान भाई अधिक लागत लगाकर भी फसल से अच्छा लाभ नही ले पारहे है वही एक किसान केले की नर्सरी से महीने मे ही लाखो कमा रहा है। हम बात कर रहे हे किसान विनोद सिंह की।  
केले की नर्सरी का काम उत्तर प्रदेश के लखनऊ  इटौंजा, गोरखपुर के बाद अब कौशाम्बी में भी शुरू हो गया है। केले की नर्सरी से अच्छी कमाई को देखते हुए अब यहा के किसानो केले की नर्सरी ने अपनी ओर आकर्षित किया है। और यहा के कई किसान अब इसकी खेती करने लगे है।

ढाई लाख की नौकरी छोड कर शुरू की खेती, आज हे एक करोड का टर्न ओवर

केले की नर्सरी को तैयार करने में लगभग 25 से 30 दिन का समय लगता है, समय कम लगने के साथ-साथ इससे अच्छी कमाई की जा सकती है|
कौशाम्बी जिले से 25 किलोमीटर की दूरी पर दक्षिण दिशा में पचामा नाम का एक गाँव है। इस गाँव के रहने वाले किसान विनोद सिंह (38 वर्ष) बताते हैं कि “2015 में मैंने केले की नर्सरी लगाना शुरू किया था। मुझे नर्सरी की खेती से अच्छा लाभ मिला। इस बार मैने 25-30 दिन में केले की नर्सरी से पांच लाख रुपए कमाए है।"
खेती एक घाटे का सौदा है ये समस्या हमारे यहां के हजारों किसानों की है। लेकिन विनोद ने इस समस्या को हल करने के लिए कई जगहो से खेती से सम्बंधित ट्रेनिंग ली और वर्ष 2010 से खेती करना शुरू किया।

शुरूआत मे उन्हे कई परेशानियो का सामना भी करना पडा लेकिन वो अपनी मेहनत और सूज बूझ से आगे बढते रहे।
खेती को सही ढंग से करने के लिए उन्हे तीन से चार साल का समय लगा और आज विनोद सिंह एक सफल किसान बनकर उभरे है।
विनोद सिंह अपनी नर्सरी के बारे मे बात करते हुए  बताते हैं कि 2015 से केले की नर्सरी करना मुझे समझ में आया। इस साल एक हजार स्क्वायर मीटर में केले की नर्सरी तैयार की। मई से जून के बीच नर्सरी तैयार हो जाती है। जुलाई से अगस्त तक के बीच में इसका पौधारोपण शुरू हो जाता है। एक बीघा में एक हजार पौधे लगते हैं। अगर किसानों को सही से ट्रेंनिग मिले तो आज भी खेती घाटे का सौदा नहीं हैं।
केले की नर्सरी लगाने की विधि
सबसे पहले पोली बैग लेते हैं, उसमे मिट्टी और गोबर की खाद आधी-आधी भर देते हैं। जून के पहले सप्ताह में पोलीबैग में मिट्टी और गोबर की खाद भरकर लाइन से क्रमबार रख देते हैं। इसके बाद इसकी सिचाईं कर देते हैं। बावस्टीन, एनपीके19, का समय-समय पर छिड़काव करते रहते हैं।
केले की नर्सरी से मुनाफा
एक लाख पौधों की नर्सरी लगाने में 9-10 लाख रुपए खर्च हो जाते हैं। एक पौधा 15 रुपए का बिकता है। 25-30 दिनों में नर्सरी से लागत निकाल कर पांच लाख रुपए आसानी से बचाए जा सकते हैं।


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Sunday, July 31, 2016

ढाई लाख की नौकरी छोड़ कर शुरू की खेती: आज एक करोड का र्टन ओवर है।




जहॉ एक तरफ किसानों का खेती से मोह भंग होता जा रहा है वही जिले के छोटे से गांव गुराडिया जोगा के एक एमटेक इंजीनियर ने ढाई लाख रुपए की नौकरी छोड़कर खेती को अपनाया है।
23 वर्षीय के कमल पाटीदार का हमेशा अपने गांव की मिट्टी की तरफ ही मन लगा रहा है।
कमल पाटीदार कुछ साल पहले नौकरी छोड़ कर अपने गांव वापस आया है गांव में आकर एक लाख रु कर्ज़ लेकर खेती करनी शुरू थी और धीरे-धीरे सफलता की सीढ़ियां चढता चला गया और आज कमल पाटीदार पूरी तरह से आधुनिक खेती कर रहे है।
उन्होंने अपने ही गांव में श्री जी नामक एक नर्सरी की स्थापना की आस नर्सरी का टर्न अवर 1 करोड रुपए सालाना है।

अब सागवान 20 सालों में नहीं 10 साल में होगा तैयार: किसानों के लिये रहेगा लाभदायक

किसान विनोद सिंह, केले की नर्सरी लगाकर 30 दिन मे कमाते है 5 लाख

कमल पाटीदार में 2011 से पहले चंडीगढ़ से नौकरी छोड़कर साथ बीघा खेत पर अपनी नर्सरी की शुरुआत की थी। शुरू में घर वालों ने उनके नौकरी छोड़ने का विरोध भी किया था, लेकिन कमल ने हार नहीं मानी और इसको एक चैलेंज के रूप में स्वीकार किया। उनका मानना है कि खेती में अगर कुछ नया किया जाए तो अच्छा मुनाफा कमाया जा सकता है।
कमल पाटीदार द्वारा पूरे क्षेत्र में पहली बार नर्सरी में नेट तकनीकों का प्रयोग किया गया।

किसान गजानंद पटेल आधुनिक खेती से सालाना कमाते हैं करोड़ों

उन्होंने अपनी नर्सरी में सीडलिंग ट्रे और कोकोपिट में 50 हजार पौधे मिर्च, टमाटर, गोभी, बैंगन, खीरा,और करेला आदि के तैयार किये। जब किसानो ने सीडलिंग  ट्रे और कोकोपिट मे तैयार पौधों के परिणाम अच्छे देखे तो यहां से खरीदारी करनी शुरू कर दी । कमल पाटीदार के ग्राहक धीरे-धीरे बढ़ते दे गए तो उनहोने दूसरे साल 5 लाख, तीसरे साल 10 लाख, चौथे साल 20 लाख, और इस वक्त उनहोने 30 लाख पौधे तैयार किए। आज हालात यह है कि आसपास के ग्रामीण क्षेत्रों के ही नहीं बल्कि कोटा, मंदसौर, रावतभाटा, उज्जैन, शाहजहांपुर तक के किसान कमल की नर्सरी से पौध लेने आते हैं।



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Thursday, July 28, 2016

आलू की उन्नत खेती / Kisan Help Room


आलू भारत की सबसे महत्वफपूर्ण फसल है। तमिलनाडु एवं केरल को छोडकर आलू भारत के सभी क्षेत्रो में उगाया जाता है।भारत मे आलू की खेती के लिए उत्तर प्रदेश, पच्छिम बंगाल,बिहार आदि प्रमुख राज्य है।
किसान आज से लगभग 7000 साल पहले से आलू उगा रहे हैं।

इसे सब्जियों का राजा कहा जाता है  भारत में शायद ही कोई ऐसा रसोई घर होगा जहाँ पर आलू ना दिखे । इसकी मसालेदार तरकारी, पकौड़ी,  चॉट, पापड चिप्स जैसे स्वादिष्ट पकवानो के अलावा अंकल चिप्स, भुजिया और कुरकुरे भी हर लोगो के मन को भा रहे हैं। प्रोटीन, स्टार्च, विटामिन सी और के  अलावा आलू में अमीनो अम्ल जैसे ट्रिप्टोफेन, ल्यूसीन, आइसोल्यूसीन आदि काफी मात्रा में पाये जाते है जो शरीर के विकास के लिए आवश्यक है।  किसान आज से लगभग 7000 साल पहले से आलू उगा रहे हैं। 
आलू की खेती के लिए उत्तम जलवायु 
आलू के लिए छोटे दिनों कि अवस्था आवश्यक होती है भारत के बिभिन्न भागो में उचित जलवायु कि उपलब्धता के अनुसार किसी न किसी भाग में सारे साल आलू कि खेती कि जाती बढवार के समय आलू को मध्यिम शीत की आवश्यवकता होती है। मैदानी क्षेत्रो  में बहुधा शीतकाल (रबी) में आलू की खेती प्रचलित है । आलू की वृद्धि एवं विकास के लिए तापक्रम 15- 25 डि से  के मध्य होना चाहिए। इसके अंकुरण के लिए लगभग 25 डि से. संवर्धन के लिए 20 डि से. और कन्द विकास के लिए 17 से 19 डि से. तापक्रम की आवश्यकता होती है, उच्चतर तापक्रम (30 डि से.) होने पर आलू  विकास की प्रक्रिया प्रभावित होती है अक्टूबर से मार्च तक,  लम्बी रात्रि तथा चमकीले छोटे दिन आलू बनने और बढ़ने के लिए अच्छे होते है। बादलो से भरे दिन, वर्षा तथा उच्च आर्द्रता वाला मौसम आलू की फसल में फफूँद व बैक्टीरिया जनित रोगों को फैलाने मे सहायक होते है।
आलू की फसल के लिए खेत का चुनाव
आलू को क्षारीय मृदा के अलावा सभी प्रकार के मृदाओ में उगाया जा सकता है परन्तु जीवांश युक्त रेतीली दोमट या सिल्टी दोमट भूमि इसकी खेती के लिए सर्वोत्तम मानी गई है। भूमि में उचित जल निकास का प्रबंध करना अति आवश्यक है। आलू की खेती के लिए मिटटी का P H मान 5.2 से 6.5 अत्यंत उपयुक्त पाया गया है। जैसे-जैसे यह P H मान ऊपर बढ़ता जाता है दशाएं अच्छी उपज के लिए प्रतिकूल होती जाती है।
आलू के कंद मिटटी के अन्दर तैयार होते है।इसलिए मिटटी का भुर भूरा होना अति आवश्यक है

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खेत की तैयारी
आलू की फसल के लिये जुताई करके मिट्टी को भुर-भुरा बनाना आवश्यक है।इसके लिए पहली जुताई मिटटी पलट हल से करनी चाहिये।इस के बाद दूसरी और तीसरी जुताई देसी हल या हैरो से करनी चाहिए। यदि खेती में ढेले हो तो इन पर पाटा चलाकर मिटटी को भुर-भुरा बना लेना चाहिए बुवाई के समय भूमि में पर्याप्त नमी का होना आवश्यक है यदि खेत में नमी कि कमी हो तो खेत में पलेवा करके जुताई करनी चाहिए ।
आलू की प्रमुख प्रजातियाँ
आलू की अच्छी किस्मो मे विदेशी और देशी दोनो प्रकार की किस्मे मिलती है।जिनमे कुछ विदेशी किस्मो को भारतीय परिस्थियों के लिए अनुकूल किया गया है इनमे से कुछ के नाम निचे दिये गए है ।
अपटुडेट , क्रेग्स डिफैंस , प्रेसिडेंट आदि .
केन्द्रीय आलू अनुसन्धान शिमला द्वारा बिकसित किस्मे
आलू की नवीनतम किस्मे
कुफरी चिप्सोना -1, कुफरी चिप्सोना -2, कुफरी गिरिराज, कुफरी आनंद आदि है ।
कुफरी चन्द्र मुखी
 80-90 दिन में तैयार  200-250 कुंतल उपज
कुफरी अलंकार
70 दिन में तैयार हो जाती है यह किस्म पछेती अंगमारी रोग के लिए कुछ हद तक प्रतिरोधी है यह प्रति हेक्टेयर 200-250 क्विंटल उपज देती है .
कुफरी बहार 3792 E
90-110 दिन में लम्बे दिन वाली दशा में 100-135 दिन में तैयार 
कुफरी नवताल G 2524
80 -120 दिन तैयार 150-250 क्विंटल/ हे उपज 
कुफरी शीत मान
100-130 दिन में तैयार  250 क्विंटल/ हे उपज 
कुफरी बादशाह
100-120 दिन में तैयार 250-275 क्विंटल/ हे उपज 
कुफरी सिंदूरी
120 से 140 दिन में तैयार 300-400 क्विंटल/ हे उपज 
कुफरी देवा
120-125 दिन में तैयार 300-400 क्विंटल/ हे उपज 
E 4,486
135 दिन में तैयार 250-300 क्विंटल उपज   हरियांणा,उत्तर प्रदेश,बिहार पश्चिम बंगाल गुजरात और मध्य प्रदेश में उगाने के लिए उपयोगी
कुफरी लालिमा
यह शीघ्र तैयार होने वाली किस्म है जो 90-100 दिन में तैयार हो जाती है इसके कंद गोल आँखे कुछ गहरी और छिलका गुलाबी रंग का होता है यह अगेती झुलसा के लिए मध्यम अवरोधी है ।
कुफरी स्वर्ण
110 में दिन में तैयार  उपज 300 क्विंटल/ हे उपज
संकर किस्मे 

कुफरी जवाहर JH 222
 90-110 दिन में तैयार  खेतो में अगेता झुलसा और फोम रोग कि यह प्रति रोधी किस्म है यह 250-300 क्विंटल उपज
JF 5106
उत्तर भारत के मैदानी क्षेत्रो में उगाने के लिए अउपयोगी .75 दिनों की फ़सल   उपज 23-28 टन / 0 हे मिल जाती है 
कुफरी संतुलज J 5857 I
संकर किस्म सिन्धु गंगा मैदानों और पठारी क्षेत्रो में उगाने के लिए   75 दिनों की फ़सल   उपज 23-28 टन / हे उपज 
कुफरी अशोक P 376 J
75 दिनों मेकी फ़सल   उपज 23-28 टन / 0 हे मिल जाती है 
JEX -166 C
 अवधि 90 दिन में तैयार होने वाली किस्म है 30 टन /हे उपज
बीज का चुनाव 
आलू की बुआई करते समय किसानो को आलू के बीज की जानकारी होना अति अवश्यक है। क्यू कि आलू के बीज के आकार और उसकी उपज से प्राप्त लाभ का आपस मे गहरा सम्बंध है।प्राय: बडी माप के बीजों से उपज तो अधिक होती है परन्तु बीज की कीमत अधिक होने से पर्याप्त लाभ नही होता। बहूत छोटी माप का बीज सस्ता होगा परन्तु  रोगाणुयुक्त आलू पैदा होने का खतरा बढ जाता है। प्राय: देखा गया है कि रोगयुक्त फसल में छोटै माप के बीजो का अनुपात अधिक होता है। अत: अच्छी फसल तथा अधिक लाभ के लिए 3 से.मी. से 3.5 से.मी.आकार या 30-40 ग्राम भार के आलूओं को ही बीज के रूप में प्रयोग करना चाहिए। 
आलू मे लगने वाले प्रमुख रोग तथा उपचार
आलू मे लगने वाले प्रमुख रोग तथा इन रोगो से बचाव निम्न प्रकार है।
माहुं या चेंपा (Aphids)
यह गहरे हरे या काले रंग के होते है प्रौढ़ अवस्था में यह दो प्रकार के होते है पंखदार और पंख हिन् इसके अवयस्क और प्रौढ़ दोनों ही पत्तियों और शाखाओं का रस चूसते है अधिक प्रकोप होने पर पत्तियां निचे की ओर मुड जाती है और पीली पड़कर सुख जाती है इसकी पंखदार जाती विषाणु फ़ैलाने में सहायता करती है माहुं कीट एक सर्वव्यापी व बहुभक्षी कीट है। ये रस चूसने वाले कीट की श्रेणी में आते हैं। माइजस परसिकी (Myzus persicae) व एफिस गौसिपी (Aphis gossypii) नामक मांहू आलू की फसल पर प्रत्यक्ष रूप से तो ज्यादा नुकसान नहीं पहुंचाते परंतु ये विषाणुओं को फैलाते हैं। रोग मुक्त बीज आलू उत्पादन में ये कीट प्रमुख बाधक हैं।
रोकथाम के उपाय
हमारे देश के गंगा के मैदानी इलाकों में ही लगभग 90% आलू की खेती की जाती है। इन क्षेत्रों में आलू की फसल माहुं रहित अवधि में करनी चाहिए।
आलू की फसल तथा अन्य सब्जियों की फसल के बीच कम 50 मीटर की दूरी रखें।
खेतों में या आसपास उगे माहुं ग्रसित पौधों, विशेषकर पीले रंग के फूल वाले पौधो को उखाड़ कर नष्ट कर देना चाहिए।
जैसे प्रति हे.100 पत्तियों पर माहुं की संख्या 20 से ज्यादा होने लगे तो फसल के डंठलों को काट दें।
उपचार
देसी गाय का 5 लीटर मट्ठा लेकर उसमे 5 किलो नीम कि पत्ती या 2 किलोग्राम नीम कि खली या 2 किलोग्राम  नीम की पत्त्ती एक बड़े मटके में 40-50 दिन भरकर तक सडा कर - सड़ने के बाद उस मिश्रण में से 5 लीटर मात्रा को 200 लीटर पानी में डालकर अच्छी तरह मिलाकर तर बतर कर प्रति एकड़ छिड़काव करे ।
कुतरा
इस किट कि सुंडिया आलू के पौधों और शाखाओं और उगते हुए कंदों को काट देती है बाद कि अवस्था में इसकी सुंडी आलुओं में छेद कर देती है जिससे कंदों का बाजार भाव कम हो जाता है यह कीट रात में फसल को क्षति पहुंचाती है ।
उपचार
10 लीटर देसी गाय के गोमूत्र में 2 किलो अकौआ की पत्ती 2 किलो नीम की पत्ती 2 किलो बेसरम की पत्ती मिलाकर 10-15 दिन तक सड़ाकर इस मूत्र को आधा शेष बचने तक उबालकर फिर इसके 1 लीटर मिश्रण को 200 लीटर पानी में मिलाकर तर बतर कर पम्प द्वारा प्रति एकड़ छिड़काव करे ।
व्हाईटगर्ब
इसे कुरमुला कि संज्ञा भी दी जाती है जो सफ़ेद या सलेटी रंग की होती है इसका शरीर मुडा हुआ और सर भूरे रंग का होता है यह जमीन के अन्दर रहकर पौधों कि जड़ो को क्षति पहुंचता है इसके अतिरिक्त आलू में छिद्र कर देती है जिसके कारण आलू का बाजार भाव कम हो जाता है ।
उपचार
10 लीटर देसी गाय का गोमूत्र में 2 किलो अकौआ कि पत्ती मिलाकर 10-15 दिन तक सड़ाकर इस मूत्र को आधा शेष बचने तक उबालकर फिर इसके 1 लीटर मिश्रण को 200 लीटर पानी में मिलाकर तर बतर कर पम्प द्वारा प्रति एकड़ छिड़काव करे ।

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एपिलेकना
यह छोटा , पीलापन लिए हुए भूरे रंग का कीट है। इसकी पीठ का भाग उठा हुआ होता है जिस पर काफी बिंदिया पाई जाती है अवयस्क और प्रौढ़ कीट दोनों ही क्षति पहुंचाते है। पौधों कि पत्तियों को कीट तथा इसके बच्चे धीरे धीरे खुरच कर खा जाते है। और पत्तियां सुख जाती है ।
उपचार
10 लीटर देसी गाय का गोमूत्र में 2 किलो अकौआ की पत्ती 2किलो नीम की पत्ती 2किलो बेसरम की पत्ती मिलाकर 10-15 दिन तक सड़ाकर इस मूत्र को आधा शेष बचने तक उबालकर फिर इसके 1 लीटर मिश्रण को 200 लीटर पानी में मिलाकर तर बतर कर पम्प द्वारा प्रति एकड़ छिड़काव करे ।
अगेतीअंगमारी
यह रोग आल्तेरनेरिया सोलेनाई नामक फफूंदी के कारण लगता है उत्तरी भारत में इस रोग का आक्रमण शरद ऋतू के फसल पर नवम्बर में और बसंत कालीन फसल पर फरवरी में होता है यह रोग कंद निर्माण से पहले ही लग सकता है। निचे की पत्तियों पर सबसे पहले प्रकोप होता है जंहा से रोग बाद में ऊपर कि ओर बढ़ता है पत्तियों पर छोट छोटे गोल अंडाकार या कोणीय धब्बे बन जाते है जो भूरे रंग के होते है ये धब्बे सूखे एवं चटकने वाले होते है। बाद में धब्बे के आकार में वृद्धि हो जाती है। जो पूरी पत्ती को ढक लेती है जिस से रोगी पौधा मर जाता है ।
उपचार
10 लीटर देसी गाय के मूत्र में 2 किलो अकौआ की पत्ती 2 किलो नीम की पत्ती 2 किलो बेसरम की पत्ती मिलाकर 10-15 दिन तक सड़ाकर इस मूत्र को आधा शेष बचने तक उबालकर फिर इसके 1 लीटर मिश्रण को 200 लीटर पानी में मिलाकर तर बतर कर पम्प द्वारा प्रति एकड़ छिड़काव करे ।
पछेती अंगमारी
यह रोग फाइटो पथोरा इन्फैस्तैन्स नामक फफूंदी के कारण होता है। इस रोग में पत्तियों कि शिराओं , तनो डंठलो पर छोटे भूरे रंग के धब्बे उभर आते है जो बाद में काले पड़ जाते है और पौधे के भूरे भाग गल सड़ जाते है रोकथाम में देरी होने पर आलू के कंद भूरे बैगनी रंग में परवर्तित होने के उपरांत गलने शुरू हो जाते है ।
उपचार
10 लीटर देसी गाय का गोमूत्र में 2 किलो अकौआ की पत्ती 2 किलो नीम की पत्ती 2 किलो बेसरम की पत्ती मिलाकर 10-15 दिन तक सड़ाकर इस मूत्र को आधा शेष बचने तक उबालकर फिर इसके 1 लीटर मिश्रण को 200 लीटर पानी में मिलाकर तर बतर कर पम्प द्वारा प्रति एकड़ छिड़काव करे ।
500 ग्राम लहसुन और 500 ग्राम तीखी चटपटी हरी मिर्चलेकर बारीक़ पीसकर 200 लीटर पानी में घोलकर थोडा सा शैम्पू झाग के लिए मिलाकर प्रति एकड़ तर बतर कर अच्छी तरह छिड़काव ।
काली रुसी ब्लैक स्कर्फ
यह रोग राइजोक्टोनिया सोलेनाई नामक फफूंदी के कारण होता है इस रोग का आक्रमण मैदानी या पर्वतीय क्षेत्र में होता है रोगी कंदों प़र चाकलेटी रंग के उठे हुए धब्बो का निर्माण हो जाता है जो धोने से साफ नहीं होते है है इस फफूंदी का प्रकोप बुवाई के बाद आरम्भ होता है जिससे कंद मर जाते है और पौधे दूर दूर दिखाई पड़ते है ।
उपचार
10 लीटर देसी गाय का गोमूत्र में 2 किलो अकौआ की पत्ती 2 किलो नीम की पत्ती 2 किलो बेसरम की पत्ती मिलाकर 10-15 दिन तक सड़ाकर इस मूत्र को आधा शेष बचने तक उबालकर फिर इसके 1 लीटर मिश्रण को 200 लीटर पानी में मिलाकर तर बतर कर पम्प द्वारा प्रति एकड़ छिड़काव करे    

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मिर्ची की उन्नत खेती. Kisan help room


मिर्च प्राय: सभी प्रकार के खाने मे प्रयोग की जाती है।
वर्षभर बाजार मे मांग बनी रहने के कारण मिर्च की खेती किसानो के लिए बहुत ही लाभदायक है।
मिर्च भारत के अनेक राज्यों में पहाड़ी व मैदानी क्षेत्रों में फल के लिए उगायी जाती है.  मिर्च का तीखापन  ओलियोरेजिल कैप्सिसिन नामक एक उड़नशील एल्केलॉइड पदार्थ के कारण तथा उग्रता कैप्साइिसन नामक एक रवेदार उग्र पदार्थ के कारण होती है।  देश में मिर्च का प्रयोग हरी मिर्च की तरह एवं मसाले के रूप में भरपूर मात्रा मे किया जाता है।  इसे सब्जियों और चटनियों में डाला जाता है।

मिर्च के लिए उपयुक्त जलवायु
मिर्च की खेती के लिए गर्म और आर्द्र जलवायु उपयुक्त होती है। लेकिन इसके फलों के पकते समय मौसम का शुष्क होना आवश्यक है। मिर्च को गर्म मौसम की फसल होने के कारण उस समय तक नहीं उगाया जा सकता, जब तक कि मिट्टी का तापमान बढ न जाए तथा पाले का प्रकोप खत्म न हो गया हो। बीजों का अच्छा अंकुरण 18-30 डि सेंटी ग्रेड तापामन पर होता है।  फूल तथा फल लगते समय मिट्टी मे नमी की कमी नही होनी चाहिये। अगर नमी की कमी हो जाती है, तो फल व फूल गिरने लगते हैं।  मिर्च के फूल व फल  लगने के लिए सबसे उपयुक्त तापमान 25-30 डिग्री सेंटी ग्रेड है। फलते समय ओस का गिरना या फिर तेज वर्षा होना फसल के लिए नुकसानदाक होता है।  क्योंकि इसके कारण फूल व छोटे फल टूट कर गिर जाते हैं।
मिर्च की उन्नत किसमे निम्न प्रकार है।
पूसा ज्वाला :
इसके पौधे छोटे आकार के और पत्तियां चौड़ी होती हैं.  फल 9-10 सेंटीमीटर लंबे ,पतले, हल्के हरे रंग के होते हैं जो पकने पर हल्के लाल हो जाते हैं.  इसकी औसम उपज 75-80 क्विंटल  प्रति  हेक्टेयर , हरी मिर्च के लिए तथा 18-20 क्विंटल  प्रति  हेक्टेयर सूखी मिर्च के लिए होती है।
पूसा सदाबहार :
पूसा सदाबहार के पौधे सीधे व लम्बे ; 60 - 80 सेंटीमीटर होते हैं.  फल 6-8 सें मी. लंबे, गुच्छों में , 6-14 फल  एक  गुच्छे में आते हैं तथा सीधे ऊपर की ओर लगते हैं पके हुए फल चमकदार लाल रंग ले लेते है।इसकी औसत पैदावार 90-100 क्विंटल, हरी मिर्च के लिए तथा 20 क्विंटल प्रति  हेक्टेयर, सूखी मिर्च के लिए होती है.  यह किस्म मरोडिया, लीफ कर्लद्ध और मौजेक रोगों के लिए प्रतिरोधी भी है।
उत्तम मिट्टी तथा खेती की तैयारी
मिर्च लगभग सभी प्रकार की मिट्टियों में उगाई जा सकती है। लेकिन अच्छी जल निकास वाली कार्बिनक तत्वों से युक्त दुमट मिट्टी इसके लिए सर्वोत्तम मानी जाती हैं। जिन क्षेत्रो मे फसल काल छोटा है, वहां बलुई तथा बलुई दोमट मिट्टी को प्राथमिकता दी जाती है।यदि मिर्च की खेती बरसात मे फसल के लिये की जाती है तो इसके लिए भारी तथा अच्छी जल निकासी वाली मिट्टी होनी चाहिए।
खेत तैयार करते समय पांच-छ: बार जुताई करके पाटा लगा कर मिट्टी को भुर-भूरी तथा खेत समतल कर लीया जाता है।  
बीज की मात्रा
एक से डेढ़ किलोग्राम अच्छी मिर्च का बीज लगभग एक हेक्टेयर में रोपने लायक पर्याप्त पौध बनाने के लिए काफी होता है.
पौध तैयार करना
मिर्च की पौध भी बैंगन व टमाटर की तरह ही तैयारी की जाती है।पौध के लिए मिट्टी हल्की , भुरभुरी व पानी को जल्दी सोखने वाली होनी चाहिए।मिट्टी मे पर्याप्त मात्र में पोषक तत्व भी होने चाहिये । पौध के लिए पर्याप्त मात्र में धूप का आना भी जरूरी है।  पौध को पाले से बचाने के लिए पानी का अच्छा प्रबन्ध होना चाहिए।क्यारी की लम्बाई 10-15 फुट तथा चौडाई 2.3-3 फुट से अधिक नहीं होनी चाहिए क्योंकि अधिक बडी क्यारियो मे निराई व अन्य कार्यो में कठिनाई आती है। पौध की उंचाई छह इंच या आधा फीट रखनी चाहिए।  बीज की बुआई कतारों में करें. कतारों का फासला पांच-सात सेंटीमीटर रखा जाता है।  पौध लगभग छह सप्ताह में तैयार हो जाती है.
पर
पौध मे लगने वाले रोग तथा उपचार
मिर्च की पौध मे लगने वाले प्रमुख रोग इस प्रकार है।
आर्द्रगलन रोग:
 यह रोग अधिक्तर मिर्च की पौध में ही आता है। इस रोग में सतह , ज़मीन के पास द्धसे हुआ तना गलने लगता है तथा पौध मर जाती है.  इस रोग से बचाने के लिए बुआई से पहले बीज का उपचार फफंदूनाशक दवा कैप्टान दो ग्राम प्रति किलोग्राम बीज की दर से करना चाहिए.  इसके अलावा कैप्टान दो ग्राम प्रति लीटर पानी में घोल बनाकर सप्ताह में एक बार नर्सरी में छिड़काव किया जाना चाहिए।
एन्थ्रेक्नोज रोग:
इस रोग में पौध की पित्तयों और फलों में विशेष आकार के गहरे, भूरे और काले रंग के घब्बे पडते है.  इसके रोग के प्रभाव से पैदावार बहुत घट जाती है इसके बचाव के लिए वीर एम-45 या बाविस्टन नामक दवा दो ग्राम प्रति लीटर पानी में घोल बनाकर छिड़काव  करना चाहिए।
मरोडिया लीफ कर्ल रोग:
यह मिर्च मे लगने वाली एक भंयकर बीमारी है।  यह रोग बरसात की फसल में अधिक लगता है। रोग की शुरूअात में पत्ते मुरझा जाते है  तथा पौधे की वृद्धि रुक जाती है।  अगर इस पर समय रहते नियंत्रण नही किया जाता हे तो ये रोग मिर्च की पैदावार को भारी नकुसान पहुंचाता है। यह एक विषाणु रोग है जिसका कोई दवा द्धारा नित्रंयण नहीं किया जा सकता है। यह रोग विषाणु, सफेद मक्खी से फैलता है। इसलिए इसका नियंत्रण भी सफेद मक्खी से छुटकारा पा कर ही किया जा सकता है। इसके नियंत्रण के लिए रोगयुक्त पौधों को उखाड कर नष्ट कर देना चाहिये तथा 15 दिन के अतंराल में कीटनाशक रोगर या मैटासिस्टाक्स दो मिलीलीटर प्रति ली की दर से छिडकाव करें।
इस रोग की प्रतिरोधी किस्में जैसे-पूसा ज्वाला, पूसा सदाबाहर और पन्त सी-1 को लगाना चाहिए।
मौजेक रोग:
इस रोग में हल्के पीले रंग के घब्बे पत्तों पर पड जाते है। बाद में पित्तयाँ पूरी तरह से पीली पड जाती है. तथा पौधे की वृद्धि रुक जाती है।  यह रोग भी एक विषाणु जनित रोग हे जिसका नियंत्रण मरोडिया रोग की तरह ही किया जाता है।
थ्रिप्स एवं एफिड:
ये कीट होते हे जो पत्तियों से रस चूसते है।
इन की रोकथाम के लिए रोगर या मैटासिस्टाक्स दो मिली लीटर  प्रति लीटर पानी में घोल बनाकर फसल पर छिड़काव करना चाहिये।
पौध की रोपाई
मैदानी और पहाड़ी ,दोनो ही इलाकों में मिर्च बोने के लिए सर्वोतम समय अप्रैल-जून तक का होता है। बड़े फलों वाली किस्में मैदानो में अगस्त से सितम्बर तक या उससे पूर्व जून-जुलाई में भी रोपी जा सकती है. उत्तर भारत में जहां सिंचाई की सुविधाएं उपलब्ध हैं, मिर्च का बीज मानसून आने से लगभग छह सप्ताह पूर्व बोया जता है और मानसून आने के साथ-साथ पौध की खेतों में रोपिई कर दी जाती है।  इसके अलावा दूसरी फसल के लिए बुआई नवम्बर-दिसम्बर में की जाती है और फसल मार्च से मई तक ली जाती है।
निराई-गुड़ाई तथा खरपतवार नियन्त्रण
पौधों की वृद्धि की आरिम्भक अवस्था में खरपतवारों पर नियंत्रण पाने के लिए दो से तीन बार निराई करना आवश्य होता है। 
सिंचाई
पहली सिंचाई पौध रोपई करने के तुरंत बाद की जाती है। इसके बाद गर्म मौसम में हर पांच-सात दिन तथा सर्दी में 10-12 दिनों के अन्तर पर फसल की सींचाई करनी चाहिये।
खाद एवं उर्वरक
गोबर की सडी हुई खाद लगभग 300-400 क्विंटल जुताई के समय ही मिट्टी में मिला देनी चाहिए। रोपाई से पहले 150 किलोग्राम यूरिया ,175 किलोग्राम सिंगल सुपर फॉस्फेट तथा 100 किलोग्राम म्यूरिएट ऑफ पोटाश तथा 150 किलोग्राम यूरिया बाद में लगाना उचित माना जाता है।  यूरिया उर्वरक फूल आने से पहले अवश्य दे देना चाहिए।


आलू की उन्नत खेती कैसे करे ।

गाजर की उन्नत खेती कैसे करे? Kisan Help Room

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Sunday, July 24, 2016

अब सागवान 20 सालो मे नही 10 साल मे होजाएगा तैयार:किसानो के लिये होगा लाभदायक

मजबूत और चमकदार लक्डी (wood) के लिये सबसे अलग पहचान रखने पेड सागवान जो लगभग 20 से 25 सालो में पूर्ण रूप से विकसित होता था अब वही सागवान महज 10 सालों में ही पूर्ण रूप से तैयार हो जाएगा।

प्राकृतिक रूप से बढ़ने वाले पेड़ों को समय से पूर्व विकसित करने की तकनीक झारखंड के वन विभाग ने इजाद करली है।इसी तकनीक की सहायता से सागवान भी 10 साल तैयार हौगा। इस तकनीक का नाम हे रूट ट्रेनर।झारखंड वन विभाग की नर्सरी में सागवान के अलावा शीशम, गम्हार, आंवला और एकेसिया पर इसका सफल प्रयोग किया जा चुका है। इससे सागवान, शीशम जैसे पेड़ लगाने वाले किसानो भाईयो को बहुत लाभ मिलेगा। इसके साथ ही वृक्षारोपण को भी बढ़ावा मिलेगा।

रूट ट्रेनर क्या है?

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रूट ट्रेनर काले रंग के प्लास्टिक की कड़ी टैपरिंगवाली ग्लासनुमा संरचना है। जो एक भी हो सकती है और ट्रे नुमा फ्रेम में समान दूरी पर ढली हुई बहत सी एक साथ भी। प्रत्येक संरचना में नीचे की ओर छिद्र होते हैं। इन्हें जमीन से ऊपर स्टैंड पर रखा जाता है।
रूट ट्रेनर कैसे कार्य करता है?
आम तौर पर पौधों की तैयारी पॉलिथीन बैग में की जाती है. पॉलिथीन बैग में पौधों की तैयारी की सबसे बड़ी समस्या यह है कि उसमें पौधों की जड़ें घुमावदार हो जाती है। इससे उनकी उत्तरजीवता पर खराब प्रभाव पड़ा है। जबकि रूट ट्रेनर में ऐसा नहीं होता है। पौधे की मूसला जड़ जब विकसित होकर रूट ट्रेनर के पेंदे पर स्थित छिद्र के पास पहुंचती है तो रूट ट्रेनर के जमीन के ऊपर स्टैंड पर रखे होने के कारण हवा के संपर्क में आती हैं। इससे मूसला जड़ों की वृद्धि स्वाभाविक रूप से रूक जाती है। ऐसा होने से मूसला जड़ में घुमाव की समस्या खत्म हो जाती है और उसमें प्रतिस्थानी जड़ें विकसित होने लगती हैं। 60 से 90 दिनों में रूट ट्रेनर में तैयार पौधे जमीन में गढ्डा कर रोपाई के लिए तैयार हो जाते हा।
इस तकनीक से बंजर भूमि में भी वृक्षारोपण होगा।
झारखंड के कुल भू-भाग 79.14 हजार वर्ग किमी की 20 प्रतिशत भूमि बंजर है. हालांकि वन भूमि के लिहाज से झारखंड काफी समृद्ध है. यहां 29 फीसद भू-भाग में जंगल है लेकिन गैर वन भूमि में पेड़ नहीं के बराबर हैं. वन विभाग की योजना गैर वानिकी क्षेत्र और बंजर भूमि में अधिक से अधिक वृक्षारोपण की है.

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किसानो के लिये आय का अच्छा स्रोत भी होगी यह तकनीक

भारत सरकार के वन एवं पर्यावरण मंत्रालय द्वारा गठित कमेटी ने गैर वन क्षेत्र में पेड़ लगाने और ट्रांजिट रूल में परिवर्तन की वकालत की है. यदि कमेटी के सुझावों को भारत सरकार मान लेती है तो निजी जमीन में फसल की तरह पेड़ लगाए और काट कर बेचे जा सकते हैं। ऐसे में वन विभाग की यह तकनीक किसानो के लिये बहुत उपयोगी साबित होगी। इस तकनीक से कम समय में पेड़ तैयार करके और उन्हें बेचकर किसान अधिक लाभ अर्जित कर सकेंगे।


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टमाटर की उन्नत खेती कैसे करे?
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Friday, July 22, 2016

टमाटर की उन्नत खेती कैसे करे?



किसान भाईयो इस लेख मे हम आपको टमाटर की उन्नत खेती के बारे मे जानकारी देगें। जिस्से हमारे किसान भाई वैज्ञानिक तरीके से टमाटर की फसल उगाकर अधिक से अधिक लाभ ले सके।
टमाटर →  किसान भाईयो टमाटर की सामान्य तथा हाइब्रिड दोनो प्रकार की किस्में होती है। सामान्यत: टमाटर की मुक्त परागीत किस्मो के फल के छिलके पतले होते है। और उनमें जूस की मात्रा अधिक होती है।तथा फल में खटास अच्छा होती है। जबकि दूसरी शंकर किस्मो के फल सामान्य आकार के व लाल रंग के होते है तथ इनके फलो का छिलका अधिक मोटा होता है,शंकर किस्म के फलो को कमरे के तापमान पर कई दिन तक बिना खराब हुए रखा जा सकता है।
बुवाई का समय
किसान भाईयो उत्तर भारत के मैदानी क्षेत्रो में टमाटर की मुख्य रूप से दो फसल ली जाती है।एक बरसात की फसल जिसकी जून जुलाई में पौध तैयार करके जुलाई अगस्त के महीने में रोपाई की जाती है।  इस फसल का फल अक्टूबर व नवम्बर में तैयार हो जाता है।
जबकि दूसरी फसल ठण्डी मे अक्टूबर माह मे पैध तैय्यार करके रोपाई की जाती है।
ठण्डी मे ली जाने वाली फसल के लिये किसान भाईयो टमाटर की शंकर किस्मो को लगाना अधिक  लाभ प्रद है।इस फसल मे टमाटर का फल जनवरी से लेकर अप्रैल तक उपलब्ध रहता है।और मौसम के कारण टमाटर का फल खराब होने की आशंका भी कम हौती है।
किसान भाईयो टमामटर ऐसी फसल हे जिसको हर प्रकार की मिट्टी में उगाया जा सकता हैं।फिर भी अच्छे जल निकास वाली मिट्टी जिसका पीएच मान 06 से 07 हो वह टमाटर के लिये उपयुक्त मानी जाती है।

खेत की अच्छे से 03 से 04 बार गहरी जुताई करके खेत को समतल कर लेना चाहिये।
खाद तथा उर्वरक
किसान भाईयो खाद किसी भी फसल के लिये महत्वपूर्ण तत्व हे अत: इसकी सही मात्रा सही समय पर ही देनी चाहिये।
टमाटर की अच्छी फसल के लिये खेत की अन्तिम जुताई करते समय 30 टन गोबर की सडी खाद प्रति हेक्टेयर के हिसाब से खेत में अच्छी तरह मिला देना चाहिये।
इसके अतिरिक्त टमाटर की फसल के लिये 150 किलोग्राम नत्रजन ,60 किलोग्राम फासफोरस तथा 60 किलोग्राम पोटाश प्रति किलोग्राम की दर से आवश्यकता पडती है।
टमाटर की पौध तैयार करना
पौध तैयार करने के लिये जमीन की सतह से 15 से 20 सेन्टी मीटर ऊचाई की क्यारी बनाकर इसमे बीज की बुवाई करते है। बीज की बुवाई करते समय बीज को मिट्टी मे ढेड से दो सेन्टीमीटर गहराई मे लगाते है तथा पक्तियों में बुवाई करते है। बीज की बुवाई के बाद क्यारी की ऊपरी सतह पर सडी हुई गोबर की खाद की पतली परत डालते है। तेज धूप, बरसात व ठंड से बचाने के लिए घास फूस से क्यारी को ढक देते है।  पूर्ण रूप से बीज अंकुरित हो जाने पर घास फूस हटा देना चाहिये।

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पौध की रोपाई
जब पौध पांच से छः पत्ती की हो जाए तो इसे 60 सेन्टी मीटर चाौडी तथा जमीन की सतह से 20 सेन्टी मीटर ऊंची उठी हुई क्यारिया बनाकर इन पर रोपाई करते है। क्यारियो के दोनो तरफ 20 सेन्टी मीटर चैडी नालिया बनाते है। क्यारियो पर पौध की रोपाई करते समय पौधे से पौधे की दूरी 30 सेन्टी मीटर रखते है।
खेत की सिचांई
किसान भाईयो टमाटर की फसल के लिये पहली सिचांई पौध रोपई के बाद की जाती है। इसके बाद फसल की आवश्यकता अनुसार समय-समय पर सिचांई करते रहना चाहिये।
खर पतवार नियन्त्रण तथा निराई-गुडाई
टमाटर क् अच्छे उत्पादन के लिए समय-समय पर निराई-गुडाई करना चाहिये।
पहली निराई पौध रोपण के 20 दिन बाद करे। तथा दूसरी निराई पौध रोपण के 40 दिन बाद करना चाहिये।
फसल सुरक्षा तथा रोग से बचाव
किसान भाईये टमाटर की फसल मे लगने वाले रोग तथा उनका बचाव निम्न प्रकार है।
आद्र गलन ‘‘ डैम्पिंक आफ → आद्र गलन टमाटर की फसल का प्रमुख रोग है। इसके बचाव के लिए बीज को बुवाई से पूर्व कैपटाम व धीरम से उपचारित करना चाहिये। अगैती झुलसा- कापर आक्सी क्लोराइड की तीन ग्राम मात्रा प्रति लीटर पानी में घोल कर झिडकाव करना चाहिये।
पत्ती मोड विषाणु रोग→ पत्ती मोड विषाणु रोग मे सर्वप्रथम रोग ग्रस्त पौधे को उखाड कर जला देना चाहिये तथा मोनोक्रोटोफास दवा की दो मिली ग्राम मात्रा प्रति लीटर पानी की दर से 15 दिन के अन्तराल पर छिडकाव करना चाहिये।
टमाटर की प्रमुख प्रजातियां
काशी अमृत,काशी अनुपम,पूसा,स्र्वण वैभव,अविनाश-2 ,रूपाली अर्का रक्षक आदि
उपज- 500 से 700 कुन्तल प्रति हेक्टेयर बीज दर- 300 से 450 ग्राम प्रति हेक्टेयर
फसल तैयार होने की अवधि → लगभग60 से 90 दिन मे टमाटर की फसल तैयार हो जाती है। जिसके के बाद किसान भाई फलो की तुडाई शुरू कर देते है।


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Thursday, July 21, 2016

24 लाख की नौकरी छोड इंजीनियर ने अपनाई खेती: अब साल मे 2 करोड का टर्नअवर:उन्नत किसान सचिन काले

किसान भाईयो आज हम बिलासपुर के रहने वाले सचिन काले ने इंजीनियर के बारे मे बताने जा रहे है जिन्होने पढाई पूरी करके 2003 की नौकरी की शुरुआत नागपुर की एक कंपनी से की।

नागपुर मे नौकरी मिलने के कुछ महीनों बाद ही पुणे की एक कंम्पनी से ऑफर मिलने पर उन्होंने पुणे की वह कंम्पनी ज्वाइन कर ली और वहा नौकरी करने लगे।
 इसी बीच एनटीपीसी सीपत में वैकेंसी निकली सचिन ने एग्जाम क्लियर किया और 2005 में वहां नौकरी करने लगे। 3 साल बाद 2008 में एनटीपीसी की नौकरी छोड़कर पुणे चले गए।
तब उन्हें वहां 12 लाख रुपए सालाना पैकेज मिल रहा था। इसके बाद 2011 में दिल्ली की एक कंपनी ने उन्हें 24 लाख रुपए सालाना पैकेज पर हायर किया।
 सचिन के पास उस वक्त बंगला, गाड़ी, नौकर-चाकर और नामी कंपनी में इंजीनियर की नौकरी थी।
इस कंम्पनी मे 3 साल तक नौकरी करने के बाद नौकरी से उनका मन भर गया और 2014 में वह नौकरी छोड कर अपने घर लौट आए।
घर वापस आने पर उने पिता अशोक काले ने उनसे अपने फैमिली कारोबार आगे बढ़ाने के लिए कहा था, लेकिन सचिन काले ने पिता से कहा कि मै कारोबार करने के लिए गांव नहीं लौटे  हैं।मै खेती करूंगा।

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पिता को सचिन की यह बात थोडी अटपटी लगी, लेकिन वह बेटे से मना नहीं कर सके और सचिन अपने खेतो मे काम करना शुरू करदिया।सचिन की मेढ़पार में करीब 20 एकड़ पुश्तैनी जमीन है।
उन्होंने एक ट्रैक्टर लेकर खुद ही खेत की जुताई शुरू की।और सब्जी की खेती करना शुरू करदिया।
इंजीनियर तो थे ही इसका पूरा फायदा खेतो को फसलो के लिये डिजाईन मे उठाया।
साथ ही आस-पास के किसानों को भी अपने खेत में बुलाकर दिखाया कि कैसे अलग-अलग हिस्सों में कई तरह से सब्जी, भाजी, धान, दाल आदि की खेती की जा सकती है। 
खेती को दिया कॉर्पोरेट का रूप
सचिन काले ने शहर से गांव लाैटते समय ही मन बनालिया था कि खेती को कॉर्पोरेट का रूप देकर ही आगे बढा जासकता है।
इसके लिए उन्होंने इनोवेटिव एग्री लाइफ सॉल्यूशन प्राइवेट लिमिटेड नाम से एक कंम्पनी बनाई।
यह कंम्पनी ही इस खेती पर खर्च का इंतजाम करती है अौर उसका हिसाब किताब रखती है, जो इनकम होती है उसमें कंपनी का भी हिस्सा होता है।कंम्पनी और खेती को जोडकर ही सचिन ने नयी ऊँचाईया दी।
सचिन बताते हैं कि पिछले एक साल में उनकी कंपनी का टर्न ओवर दो करोड़ रुपए तक पहुंच गया है।
आस-पास के 70 गंवो के किसान आते हैं सलाह लेने
इंजीनियर की नौकरी छोड़कर खेती करने की सचिन की चर्चा आस-पास के गांव में फैली तो आस-पास के किसान उनकी फसलो को देखने के लिये आने लगे।

उनके खेतों में खड़े पौधे से कई किसान काफी प्रभावित हुए। उनकी देखादेखी उन्होंने भी अपने खेतों में ऐसी ही फसल ली।
पैदावार अच्छी हुई तो देखते ही देखते 2 साल में उनसे 70 किसान जुड़ गए, जो अब खेती की सलाह लेने आते रहते हैं।
दादा से मिली समाज के लिए काम करने की प्रेरणा
सचिन की उम्र करीब 38 साल है। करीब 12 साल तक उन्होंने नौकरी की जिसमे वह नागपुर, पुणे, दिल्ली, बंबई में रहे।
जब भी वे घर आते थे, तब उनके दादा वसंतराव काले उनसे कहते थे कि नौकरी में कुछ नहीं रखा है। सिर्फ पैसे कमाना ही जिंदगी नहीं है।
उनका कहना था कि समाज के लिए भी उन्हें कुछ करना चाहिए। 
इस बात ने उन्हें इंस्पायर किया और उन्होंने लोगों के लिए ताजी सब्जियां और आर्गेनिक फूड के प्रोडक्ट प्रोड्यूस करने की ठानी।और आज सचिन काले अपने ऐरिया के उन्नत किसान है जो सालाना करोडो कमाते है ।
सचिन काले से प्रेरणा लेकर दूसरे किसान भी सफलता की राह पर चलपडे है बहुत से किसान सचिन से जानकारी लेकर आर्गेनिक खेती करके अच्छा मुनाफा कमा रहे है।


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