Tuesday, August 16, 2016

विदेशी पौधो की सप्लाई ने बना दिया करोडपति,किसान इनका बाग लगाकर करसकते हे अधिक कमाई



राजस्थान के तरंजन चौधरी ने अपनी महनत और लगन से बाड़मेर राजस्थन के रेतीले इलाकों में उन फलों को उगाया है जो पहले सिर्फ विदेशी जमीन पर उगते थे।
तरंजन चौधरी की बदौलत बाड़मेर आज इन पौधों की नर्सरी का हब बन चुका है। तरंजन विदेशों से इन पौधों को लाकर देश के कई अन्नय राज्यों में किसानों को दे रहे हैं।कई पौधों के तो वो भारत में अकेले सप्लायर हैं। इससे तरंजन को तो सालाना करोड़ों की आमदनी होती ही है।साथ देश के किसान भी विदेशी फलो के पौधे लगाकर लाखो कमा रहे है।


तरंजन चौधरी राजस्थान के बाड़मेर जिले के रहने वाले है।
तरंजन ने छह साल पहले एक खबर में विदेशों मे पौधारोपण की कई नयी किस्मों के बारे में पढ़ा, जिसमे उन्होंने थाई एप्पल बेर, ग्राफ्टेड चीकू, ग्राफ्टेड आम, अंजीर, पिस्ता, थाई अमरुद, बिना बीज नींबू, गुग्गल, ड्रैगन, अनार, कलमी गुन्दा, हाइब्रिड शीशम, एस मोगी, दिव्य चन्दन की तमाम नयी किस्मों के बारे में जाना।

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ये नयी किस्में उनके अपने ही शहर में पैदा हों इसके लिए उन्होंने कई संस्थानों में जाकर प्रशिक्षण भी प्राप्त किया। तरंजन चौधरी बताते हैं, विदेशों में उगने वाले पौधों की बागवानी से अच्छी कमाई तो हो सकती थी, लेकिन हमारे लिये ये जानना जरुरी था कि हमारे देश की जलवायु में ये पौधे पनपेंगे या नहीं? इसलिए हमने 2010 में देश के 120 इलाकों की मिट्टी, बारिश और समुद्र के पानी के सैंपल की जांच कराई। जांच बाद हमें पता चला कि ये फल हमारे देश की जलवायू में पैदा हो सकते हैं।"
वो आगे बताते हैं, सैंपल के तौर पर हमने कुछ पौधे इजराइल,थाईलैंड, कैलोफोर्नियाँ से मंगाना शुरू कर दिया, प्रयोग सफल रहा तो फिर इसी काम को शुरु कर दिया। अब मैं नर्सरी का स्टॉक करता हूं, विदेशों से पौधे मंगवाता हूं और उन्हें देश के कोने-कोने में किसानों को भेजता हूं।"
तरंजन चौधरी द्वरा लाई गयी इन नयी प्राजातियों में एक प्रजाति एप्पल बेर की है, जिसे इस वक्त लगाया जा सकता है। थाईलैंड के इस पौधे को जून से लेकर दिसंबर तक कभी भी लगाया जा सकता हैं। राजस्थान में इस समय एप्पल बेर की खेती लगभग 500 हेक्टेयर भूमि पर हो रही है। एप्पल बेर का पौधा -5 डिग्री से 55 डिग्री तक का तापमान सहन करने की क्षमता रखता है।
तरंजन बताते हैं, एक बार एप्पल बेर लगाने के बाद पचास साल तक इससे आमदनी की जा सकती है। खेत में पौधा लगाने के 14 महीने बाद पौधे पर फल आने शुरू हो जाते हैं। पहले साल थोड़ा कम पैदावार होती है लेकिन दूसरी और तीसरी साल से पैदावार मे बढोतरी होने के साथ किसान लाखों रुपए सालाना  कमा सकते हैं।
उत्तरप्रदेश में एप्पल बेर की खेती के बारे में पूछने पर तरंजन सिंह के भाई घेवर सिंह बताते हैं कि बाग लगाई जा सकती है लेकिन खर्च थोड़ी ज्यादा आता है। अगर राजस्थान में एक बीघे में 20 हजार का खर्च आता है तो यूपी में 50 हजार खर्च आएगा।  इस बाग से पहले साल 30 हजार,दूसरे और तीसरे साल में दो से ढाई लाख का मुनाफा हो सकता है।

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फलदार पौधों के साथ-साथ तरंजन फर्नीचर में इस्तेमाल होने वाले पौधे भी विदेशो से मंगाने लगे हैं। पेशे से कंप्यूटर शिक्षक उनके भाई घेवर सिंह राजपुरोहित भी इसी पेशे में हाथ आजमा रहे हैं। घेवर सिंह बताते हैं कि भारत में पहली बार कैलीफोर्निया और थाई लैब द्वारा तैयार एन्टीडिजीज,एन्टीक्लाईमेट, हाईब्रिड किस्म, टिश्यू कल्चर, ग्राफ्टेड और उच्च तकनीक से तैयार फलों एवं इमारती लकड़ी के पौधों की नर्सरी तैयार की है। वो अपनी नर्सरी के इन पौधों को महाराष्ट्र, राजस्थान, हरियाणा, पंजाब, मध्प्रदेश और दिल्ली भेजते हैं। 
कैसे लगाएं एप्पल बेर का बाग
जून के महीने से लेकर दिसम्बर महीने तक खेत में एप्पल बेर किसी भी समय लगाया जा सकता हैं। 15/13 के हिसाब से गढ्ढे से गढ्ढे की दूरी,2/2 का गढ्ढा खोदना हैं। 8-10 दिन तक इसे खुला छोड़ने के बाद इसमे एप्पल बेर के पौधे लगा सकते हैं। एक बीघे में 100 पौधे लगाये जा सकते हैं। एक पौधे की कीमत 140 रुपये है। पौधे को पानी और खाद आदि देने के लिए टिप्स तरंजन की टीम आजीवन किसानों को देगी। थाई एप्पल बेर में कांटे नहीं होते हैं। इसमें 11 से 14वें महीने में उत्पादन शुरू हो जाता है। सेब जैसे स्वाद वाले इस फल का वजन 100 ग्राम तक होता है। महाराष्ट्र में इस फल की औसत कीमत 40-45 रुपये प्रति किलो है।

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Monday, August 8, 2016

गाजर की उन्नत खेती / Kisan Help Room



गाजर मनुष्य के आहार के लिए मे प्रयोग होने वाली महत्तवपूर्ण सब्जी है। गाजर को सलाद के रूप मे खाने के साथ-साथ परकारी पकाकर,जूस निकाल कर और कई प्रकार की मिठाईयो के रूप मे भी गाजर का प्रयोग पूरे भारतवर्ष मे किया जाता है।
गाजर की खेती पूरे भारतवर्ष में की जाती है। गाजर में कैरोटीन एवं विटामिन ए पाया जाता है जो कि मनुष्य के शरीर के लिए बहुत ही लाभदायक है नारंगी रंग की गाजर में कैरोटीन की मात्रा अधिक पाई जाती है गाजर की हरी पत्तियो में बहुत ज्यादा पोषक तत्व पाये जाते है जैसे कि प्रोटीन, मिनिरल्स एवं विटामिन्स आदि। गाजर की पत्तिया जानवरो को खिलाने पर जानवरो को बहुत लाभ पहुचाती है गाजर की हरी पत्तियां मुर्गियों के चारे के रूप मे भी प्रयोग की जाती है। भारत मे गाजर मुख्य रूप से उत्तर प्रदेश, असाम, कर्नाटक, आंध्रा प्रदेश, पंजाब एवं हरियाणा में उगाई जाती हैI


गाजर के लिए उपयुक्त जलवायु
गाजर की खेती के लिये मूलत ठंडी जलवायु की अवश्यक्ता होती है इसका बीज को अंकुरित होने के लिए 7.5 से 28 डिग्री सेल्सियस तापमान अधिक उपयुक्त होता है। जड़ों कि बृद्धि और उनका रंग तापमान से बहुत अधिक प्रभावित होता है 15-20 डिग्री तापमान पर जड़ों का आकार छोटा होता है परन्तु रंग सर्वोत्तम होता है। गाजर की विभिन्न किस्मों पर तापमान का प्रभाव भी भिन्न-भिन्न पडता है। विलायती किस्मों के लिए 4-6 सप्ताह तक 4.8 -10 डिग्री सेन्टी ग्रेड तापमान  जड़ बनते समय चाहिए होता है।
उत्तम मिट्टी
गाजर की खेती दोमट मिट्टी सबसे अच्छी मानी जाती है। बुआई के समय खेत की मिट्टी अच्छी तरह से भुर-भुरी होनी चाहिए। क्यू कि भुर-भुरी मिट्टी मे गाजर की जड़ें अच्छी बनती है। भूमि में पानी का निकास होना भी अतिआवश्यक हैI
खेत की तैयारी
गाजर की अच्छी फसल प्राप्त करने के लिए खेत को अच्छे से तय्यार करना भी जरूरी होता है।
सबसे पहले खेत की विक्ट्री हल से 2 बार जुताई करना चाहिये। इसके बाद  3-4 जुताई देशी हल से करें प्रत्येक जुताई के बाद पाटा अवश्य लगाएं, ताकि मिटटी भुर-भुरी हो जाए। मिट्टी करीब 30 सेमी गहराई तक भुर-भुरी होना चाहिए।

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गाजर की उन्नत क़िस्में
गाजर की बहुत सी देशी तथा विदेशी किस्मे है जिनमे से कुछ प्रमुख किस्मे निम्नलिखित है।
पूसा केसर
पूसा केसर लाल रंग की होती हे जो गाजर की उत्तम प्रजाति है। इसकी पत्तियाँ छोटी तथा जड़ें लम्बी, आकर्षक लाल रंग की होती है। इसका केन्द्रीय भाग  संकरा होता है। इसकी फ़सल लग-भग  90-110 दिन में तैयार हो जाती है। पूसा केसर की पैदावार300-350 क्विंटल प्रति हेक्टेअर तक होती है।
पूसा मेघाली
यह नारंगी गूदे, छोटी टॉप तथा कैरोटीन की अधिक मात्रा वाली संकर प्रजाति है। इसकी फ़सल बुवाई से 100-110 दिन में तैयार हो जाती है।
पैदावार 250-300 क्विंटल प्रति हेक्टेअर होती है.
पूसा यमदाग्नि
यह प्रजाति आई० ए० आर० आई० के क्षेत्रीय केन्द्र कटराइन द्धारा विकसित की गयी है। इसकी फसल 90-105 दिन मे तैयार हो जाती है।
इसकी पैदावार 150-200 क्विंटल प्रति हेक्टेअर होती है.
नैन्टस
इस क़िस्म की जडें बेलनाकार तथा नांरगी रंग की होती है। जड़ के अन्दर का केन्द्रीय भाग मुलायम, मीठा होता है। इसकी फसल 110-112 दिन में तैयार हो जाती है।
इसकी पैदावार 100-125 क्विंटल प्रति हेक्टेअर तक होती है।

बुआई के लिए अनुकूल समय
मैदानी इलाकों में गाजर की एशियाई क़िस्मों की बुआई के लिए अगस्त से अक्टूबर तक का समय तथा यूरोपियन क़िस्मों की बुआई के लिए अक्टूबर से नवम्बर का समय अनुकूल होता है।
बुआई के लिए बीज की मात्रा
एक हेक्टेअर क्षेत्रफल के लिए 6-8 कि०ग्रा० गाजर के बीज की आवश्यकता होती है।
बीज रोपाई तथा सिचाई
गाजर के बीजो का रोपण या तो छोटी-छोटी समतल क्यारियों में करते हे। या फिर 30-40 से०मी० की दूरी पर मेंढ बनाकर उसके ऊपर करते हैं।
बुआई के समय खेत में पर्याप्त नमी होनी चाहिए. पहली सिंचाई बीज उगने के बाद करें. शुरू में 8-10 दिन के अन्तर पर तथा बाद के 12-15 दिन के अन्तर पर सिंचाई करनी चाहिये। बुवाई के बाद नाली में पहली सिंचाई करनी चाहिए जिससे मेंड़ों में नमी बनी रहे बाद में 8 से 10 दिन के अंतराल पर सिंचाई करते रहना चाहिएI गर्मियों में 4 से 5 दिन के अंतराल पर सिंचाई करनी चाहिएI खेत कभी भी सूखना नहीं चाहिए नहीं तो पैदावार कम हो जाती हैI
खाद तथा उर्वरक
गाजर की अच्छी फसल के लिए खाद की सही मात्रा तथा सही समय पर देना अवश्यक है।।एक हेक्टेअर खेत के लिए लगभग 25-30 टन सड़ी हुई गोबर की खाद अन्तिम जुताई के समय तथा 30 कि०ग्रा० नाइट्रोजन व 30 कि०ग्रा० पौटाश प्रति हेक्टेअर की दर से बुआई के समय डालें. बुआई के 5-6 सप्ताह बाद 30 कि०ग्रा० नाइट्रोजन को ट्रॉप ड्रेसिंग के रूप मे देना चाहिये।

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कीट तथा खरपतवार नियंत्रण 
गाजर कि फसल के साथ अनेक प्रकार के खरपतवार भी उग आते है , जो भूमि से नमी और पोषक तत्व लेते है , जिसके कारण गाजर के पौधों का विकास और बढ़वार पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है अत: इन्हें खेत से निकाल देना अति आवश्यक है। निराई करते समय पक्तियों से अनावश्यक पौधे निकाल कर पौधो के मध्य कि दुरी अधिक कर देनी चाहिए। सथ ही वृद्धि करती हुई जड़ों के समीप हल्की निराई गुड़ाई करते रहना चाहिए ।
गाजर कि फसल पर भिम्न प्रकार के कीड़े मकोड़ों का प्रकोप होता है। मुख्य रूप से गाजर कि विविल : छ धब्बे वाला पत्ती का टिड्डा । इसकी रोकथाम के लिए
नीम का काढ़ा बना इसे कर पम्प द्वारा 10 - 15 दिन के अंतराल पर खेत मे तर बतर छिडकाव करे ।
प्रमुख रोग तथा इनका नियंत्रण 
आद्र विगलन 
यह रोग पिथियम अफनिड़रमैटम नामक फफूंदी के कारण होता है। इस रोग के कारण गाजर के बीज  अंकुरित होते ही पौधे संक्रमित हो जाते है।  कभी-कभी अंकुर भूमि से बाहर नहीं निकाल पाता है और बीज  पूरा ही सड जाता है तने का निचला भाग जो भूमि कि सतह से लगा रहता है , सड गल जाता है जिसके फलस्वरूप पौधे वही से टूट कर नीचे गिर जाते है पौधों का अचानक गिर पड़ना और सड जाना आद्र विगलन का प्रमुख कारण है।
रोकथाम
1. बीज को बोने से पूर्व गौ मूत्र से उपचारित करें।
2. हल्की सिंचाई करनी चाहिए।
जीवाणु मृदु सडन और बिगवड रोग 
यह रोग इर्विनिया कैरोटोवोरा नामक जीवाणु के कारण फैलता है इस रोग का प्रकोप विशेष रूप से गूदेदार जड़ों पर होता है इस रोग के कारण जड़े सड़ने लगती है ऐसी भूमि जिनमे जल निकास कि अच्छी व्यवस्था नहीं होती है। या निचले क्षेत्र में बोई गई फसल पर यह रोग अधिक लगता है।
रोकथाम 
1. खेत में जल निकास का उचित प्रबंध करना चाहिए।
2.   नीम का काढ़ा बनाकर
 25 ग्राम ताजा हरा नीम कि पत्ती तोड़ कर कुचल कर पिस कर किलो 50 लीटर पानी में मिलाकर उबलाते है जब पानी 20 -25 लीटर रह जाये तब उतार कर ठंडाकर आधा लीटर प्रति पम्प पनी में मिलाकर प्रयोग करे।
3.  गौ मूत्र का छिडकाव
10 लीटर देसी गाय का गौ मूत्र लेकर पारदर्शी कांच के या प्लास्टिक के बर्तन में १५ -२० दिन धुप में रखने के बाद आधा लीटर प्रति पम्प पानी मिलाकर तर बतर कर फसलो पर छिड़काव करे |
गाजर की खुदाई एवं पैदावार
गाजर की जड़ों की खुदाई तब करनी चाहिए जब वे पूरी तरह विकसित हो जाए. खेत में खुदाई के समय पर्याप्त नमी होनी चाहिए। जड़ों की खुदाई फरवरी में करनी चाहिए। बाजार भेजने से पूर्व जड़ों को अच्छी तरह धो लेना चाहिए।
गाजर की पैदावार क़िस्म पर निर्भर करती है। एसियाटिक क़िस्में अधिक उत्पादन देती है। पूसा क़िस्म की पैदावार लगभग 300-350 क्विंटल प्रति हेक्टेअर, पूसा मेधाली 250-300 क्विंटल प्रति हेक्टेअर जबकि नैन्टिस क़िस्म की पैदावार 100-112 क्विंटल प्रति हेक्टेअर तक होती है।



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किसान विनोद सिंह केले की नर्सरी से 30 दिन मे कमाते है 5 लाख: Kisan Help Room



जहॉ एक तरफ हर कोई खेती को घाटे का सौदा बताता है। किसान भाई अधिक लागत लगाकर भी फसल से अच्छा लाभ नही ले पारहे है वही एक किसान केले की नर्सरी से महीने मे ही लाखो कमा रहा है। हम बात कर रहे हे किसान विनोद सिंह की।  
केले की नर्सरी का काम उत्तर प्रदेश के लखनऊ  इटौंजा, गोरखपुर के बाद अब कौशाम्बी में भी शुरू हो गया है। केले की नर्सरी से अच्छी कमाई को देखते हुए अब यहा के किसानो केले की नर्सरी ने अपनी ओर आकर्षित किया है। और यहा के कई किसान अब इसकी खेती करने लगे है।

ढाई लाख की नौकरी छोड कर शुरू की खेती, आज हे एक करोड का टर्न ओवर

केले की नर्सरी को तैयार करने में लगभग 25 से 30 दिन का समय लगता है, समय कम लगने के साथ-साथ इससे अच्छी कमाई की जा सकती है|
कौशाम्बी जिले से 25 किलोमीटर की दूरी पर दक्षिण दिशा में पचामा नाम का एक गाँव है। इस गाँव के रहने वाले किसान विनोद सिंह (38 वर्ष) बताते हैं कि “2015 में मैंने केले की नर्सरी लगाना शुरू किया था। मुझे नर्सरी की खेती से अच्छा लाभ मिला। इस बार मैने 25-30 दिन में केले की नर्सरी से पांच लाख रुपए कमाए है।"
खेती एक घाटे का सौदा है ये समस्या हमारे यहां के हजारों किसानों की है। लेकिन विनोद ने इस समस्या को हल करने के लिए कई जगहो से खेती से सम्बंधित ट्रेनिंग ली और वर्ष 2010 से खेती करना शुरू किया।

शुरूआत मे उन्हे कई परेशानियो का सामना भी करना पडा लेकिन वो अपनी मेहनत और सूज बूझ से आगे बढते रहे।
खेती को सही ढंग से करने के लिए उन्हे तीन से चार साल का समय लगा और आज विनोद सिंह एक सफल किसान बनकर उभरे है।
विनोद सिंह अपनी नर्सरी के बारे मे बात करते हुए  बताते हैं कि 2015 से केले की नर्सरी करना मुझे समझ में आया। इस साल एक हजार स्क्वायर मीटर में केले की नर्सरी तैयार की। मई से जून के बीच नर्सरी तैयार हो जाती है। जुलाई से अगस्त तक के बीच में इसका पौधारोपण शुरू हो जाता है। एक बीघा में एक हजार पौधे लगते हैं। अगर किसानों को सही से ट्रेंनिग मिले तो आज भी खेती घाटे का सौदा नहीं हैं।
केले की नर्सरी लगाने की विधि
सबसे पहले पोली बैग लेते हैं, उसमे मिट्टी और गोबर की खाद आधी-आधी भर देते हैं। जून के पहले सप्ताह में पोलीबैग में मिट्टी और गोबर की खाद भरकर लाइन से क्रमबार रख देते हैं। इसके बाद इसकी सिचाईं कर देते हैं। बावस्टीन, एनपीके19, का समय-समय पर छिड़काव करते रहते हैं।
केले की नर्सरी से मुनाफा
एक लाख पौधों की नर्सरी लगाने में 9-10 लाख रुपए खर्च हो जाते हैं। एक पौधा 15 रुपए का बिकता है। 25-30 दिनों में नर्सरी से लागत निकाल कर पांच लाख रुपए आसानी से बचाए जा सकते हैं।


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