Monday, January 24, 2022

वर्मीकम्पोस्ट: (केंचुआ खाद) महंगाई में किसानों को देगी राहत

वर्मीकम्पोस्ट (केंचुआ खाद)


वर्मी-कम्‍पोस्‍ट या वर्मीकल्‍चर इसे केंचुआ पालन भी कहा जाता हैं। इसमे विभिन्न प्रजाति के केंचुओं को गोबर तथा जैविक अपशिष्ट मिलाकर खिलाया जाता है। इन केंचुओ के मल से तैयार खाद ही वर्मी कम्‍पोस्‍ट कहलाती है। वर्मीकम्पोस्ट सभी प्रकार की फसलों के लिए प्राकृतिक, सम्‍पूर्ण एव्र संतुलित आहार है।
वर्मीकम्पोस्ट के प्रयोग से भू‍मी में लगभग 5 गुणा नत्रजन, 1.5 गुणा विनिमयी सोडियम, 3 गुणा मैग्‍नीशियम, 7.2 गुणा सुलभ फासफोरस तथा 11 गुणा सुलभ पोटाश की मात्रा बढ जाती है। किसान भाईयो लगातार बढ़तीवी महंगाई के कारण रासायनिक उर्वरक भी महंगे होते जा रहे है। कम उत्पादन और अधिक खर्च के कारण किसान कर्ज के नीचे दबते जा रहे है। किसानों की हालत बदलने के उद्देश्य से केंद्रीय कृषि विभाग जैविक खेती को बढ़ावा दे रहा है। जिससे उनकी फसल की लागत को कम करके  उत्पादन को बढ़ाया जा सके। हरितक्रांति के बाद से ही किसान तेजी से अपनी फसल में रासायनिक खाद का प्रयोग करते आरहे हैं जो कि जैविक खाद की तुलना में काफी महंगा होता है। और सही समय पर बाजार में उपलब्ध भी नही होता है। जबकि किसान घर पर ही कम खर्च मे कुछ आसान विधियों को अपनाकर अच्छी किस्म की वर्मी कम्पोस्ट खाद बना सकते हैं।
गोबर को फसल पोषण का सर्वाधिक श्रेष्ठ विकल्प माना जाता हैं। जिसमे पौधों के लिए आवश्यक सभी सूक्ष्म तत्व संतुलित मात्रा में उपलब्ध होते हैं। इन सूक्ष्म तत्वों को पौधे बड़ी आसानी से अवशोषित कर लेते हैं। गोबर में उपस्थित सूक्ष्मजीव मृदा में उपस्थित जैव-भार के विघटन का कार्य बहुत ही सफलतापूर्वक करते हैं।
जैविक खाद बनाने की कई विधियां प्रचलन में हैं। जैसे कम्पोस्ट, नाडेप विधि, मटका खाद और वर्मी कम्पोस्ट आदि।
इस लेख में हम अपने पाठकों को वर्मीकम्पोस्ट विधि से जैविक खाद बनाने के बारे में जानकारी दे रहे है।
जैसा कि हमारे पाठकगण जानते है कि आजकल वर्मी कम्पोस्ट को तैयार करने का काम औद्योगिक स्तर पर भी हो रहा है। और कुछ प्रगतिशील किसान भी अपनी आवश्यकतानुसार घर पर ही इसे तैयार कर रहे है। वर्मी कम्पोस्ट विधि का प्रचलन अन्य विधियों की तुलना में आज कही अधिक है। इस विधि से उत्तम किस्म की जैविक खाद का निर्माण अपेक्षाकृत कम समय में हो जाता है। तथा इस विधि से बनाई गयी खाद की गुणवत्ता भी अधिक होती है। इसके साथ ही वर्मी कम्पोस्ट विधि से प्राप्त खाद का भण्डारण भी ज्यादा सहजता से किया जा सकता है। इन सब कारणों को ध्यान मे रखकर इस विधि के प्रति किसानों में स्वतः ही आकर्षण उत्पन्न हो रहा है।

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वर्मी कम्पोस्ट बनाने के लिए आवश्यक सामग्री


 वर्मी कम्पोस्ट बनाने के लिए सभी प्रकार के जैव-क्षतिशील कार्बनिक पदार्थ जैसे गाय, भैंस, भेड़, गधा और मुर्गियों आदि का मल, बायोगैस स्लरी, जैविक कूड़ा-कचरा, फसल अवशेष, घास-फूस व पत्तियां तथा रसोई घर का कचरा आदि का उपयोग किया जा सकता है।

वर्मी कम्पोस्ट बनाने की विधियां

किसान भाईयो वर्मीकम्पोस्ट बनाने के लिए विभिन्न तरीके अपनाए जाते है। इनमे से हम कुछ प्रमुख तरीको का वर्णन इस लेख में कर रहे है।

1- चार हौद विधि (Four-pit method)




किसान भाईयो चार हौद विधि से वर्मीकम्पोस्ट तैयार करने के लिए चुने गये छायादार स्थान पर 12 फिट लम्बाई 12 फिट चौड़ाई और 2.5 फिट ऊंचाई का एक गड्‌ढा पक्की ईंटो से बनाया जाता है। इस गड्‌ढे को ईंट की दीवारों से 4 बराबर भागों में बांट दिया जाता है। तरह से हमारे पास 4 गडढे हो जाते है। प्रत्येक गड्ढ़े का आकार लगभग 5.5 फिट लम्बा, 5.5 फिट चौड़ा और 2.5 फिट ऊंचा होता है। बीच की विभाजक दीवार मजबूती के लिए दो ईंटों (9 इंच) की बनाई जाती है। इन विभाजक दीवारों में समान दूरी पर हवा व केंचुओं के आने जाने के लिए छिद्र छोड़ दिए जाते हैं। इस प्रकार की गढ्ढो की संख्या आवश्यकतानुसार रखी जा सकती है।
इस विधि में सबसे पहले एक गडढे को जैविक कचरे से पूरी तरह भरते है।
गडढे को भरने के लिए जैविक कचरे और गोबर को मिक्स करके भर सकते है। या फिर
गडढे में सबसे नीचे 5 से 6 इंच मोटी जैविक कचरे की परत बिछा कर उसके ऊपर एक 2 से 3 इंच की परत गोबर की बिछा देते है। इसी तरह एक के बाद एक परत बिछाकर गडढे भर लेते है।
पहले एक महीने तक पहला गड्‌ढा भरते हैं पूरा गड्‌ढा भर जाने के बाद पानी छिड़क कर उस गडढे को काले पॉलीथिन से ढक देते हैं ताकि कचरे के विघटन की प्रक्रिया शुरू हो जाये। इसके बाद दूसरे गड्‌ढे में कचरा भरना शुरू कर देते हैं। दूसरे माह जब दूसरा गड्‌ढा भी भर जाता है तब उसे भी इसी प्रकार काले पॉलीथिन से ढक देते हैं और कचरा तीसरे गड्‌ढे में भरना शुरू कर देते हैं। जो गडढा सबसे पहले भरा था अब उस गडढे का जैविक कचरा अधगले रूप मे परिवर्तित हो चुका होगा। इस गड्ढ़े से काली पॉलीथिन उत्तर दे एक दो दिन बाद जब इस गड्‌ढे का तापमान कम हो जाए तब उसमें लगभग 5 किग्राम ( करीब 5000) केंचुए छोड़ देते हैं। इसके बाद इस गड्‌ढे को सूखी घास अथवा जूट की बोरियों से ढक देते हैं। कचरे में नमी बनाये रखने के लिए आवश्यकतानुसार पानी छिड़कते रहते है। इस प्रकार 3 माह बाद जब तीसरा गड्‌ढा कचरे से भर जाता है तब इसे भी पानी से भिगो कर ढक देते हैं और चौथे को गड्‌ढे में कचरा भरना आरम्भ कर देते हैं। धीरे-धीरे जब दूसरे गड्‌ढे की गर्मी कम हो जाती है तब उसमें पहले गड्‌ढे से केंचुए विभाजक दीवार में बने छिद्रों से होते हुए खुद ही प्रवेश कर जाते हैं और उसमें भी केंचुआ खाद बनना आरम्भ हो जाती है। इस प्रकार लगातार चार माह में एक के बाद एक चारों गड्‌ढे भर जाते हैं। इस समय तक पहले गड्‌ढे में जिसे भरे हुए तीन माह हो चुके हैं केंचुआ खाद (वर्मीकम्पोस्ट) बनकर तैयार हो जाती है। इस गड्‌ढे के सारे केंचुए दूसरे एवं तीसरे गड्‌ढे में धीरे-धीरे  बीच की दीवारों में बने छिद्रों से होते हुए प्रवेश कर जाते हैं।
अब पहले गड्‌ढे से तैयार जैविक खाद निकाल लेते है और गडढे को दोबारा जैविक कचरे भरना शुरू कर देते हैं। इस विधि में एक वर्ष में प्रत्यके गड्‌ढे में एक बार में लगभग 10 कुन्तल कचरा भरा जाता है जिससे एक बार में 7 कुन्तल खाद (70 प्रतिशत) बनकर तैयार होती है। इस प्रकार एक वर्ष में चार गड्‌ढों से तीन चक्रों में कुल 84 कुन्तल अच्छी किस्म की जैविक खाद प्राप्त होती है। इसके अलावा एक वर्ष में एक गड्‌ढे से 25 किलोग्राम और 4 गड्‌ढों से कुल 100 किलोग्राम केंचुए भी प्राप्त होते हैं।

2-  पेड़ विधि


किसान भाईयो वर्मी कम्पोस्ट बनाने की इस विधि मे पेड़ के चारों ओर जैविक कचरा तथा गोबर गोलाई में डाला जाता है। प्रतिदिन गोबर को डालकर धीरे-धीरे पेड़ के चारो ओर इस गोल चक्र को पूरा किया जाता है। जब गोबर और कचरा अधगले रूप में आजाये तो गोबर के ढेर में जरूरत के हिसाब से केंचुए डाल कर गोबर को जूट के बोरे से ढक दिया जाता है। इस गोल चक्र मे नमी के लिए जूट के बोरो के ऊपर से ही समय-समय पर पानी का छिड़काव किया जाता है। ये विशेष प्रजाति के केंचुए अधगले जैविक कचरे और गोबर को खाते हुए धीरे-धीरे आगे बढ़ते जाते हैं और अपने पीछे वर्मी कम्पोस्ट तैयार करते जाते हैं। इस प्रकार ,तैयार वर्मी कम्पोस्ट को इकठ्ठा करके उसमे से केचुओं को छान कर अलग कर लेते है। इसके बाद वर्मी कम्पोस्ट को बोरों में भरकर रख लिया जाता है।

3 बेड विधि




किसान भाईयो इस समय वर्मी कॉम्पोस्ट बनाने की जो विधि सबसे अधिक प्रयोग में लायी जाती है वह है बेड विधि। किसी छायादार जगह पर जमीन के ऊपर 5 से 6 फिट की चौड़ाई और अपनी आवश्यकता अनुसार  लम्बाई के ईंटो की सहायता से बेड बना लिए जाते हैं।  इन बेड़ों की ऊंचाई लगभग 2 फिट रखते है। वर्मी कम्पोस्ट खाद निर्माण करने के लिए गाय-भैंस का गोबर, जानवरों के नीचे बिछाए गए घासफूस-खरपतवार के अवशेष आदि का उपयोग किया जाता है। जिन्हें आपस मे मिलाकर ढेर के रूप में बेड बनाये जाते है। इस बेड की ऊंचाई लगभग लगभग 1.5 फिट तक रखी जाती है। बेड के ऊपर जूट की बोरी, पुवाल और घास आदि डालकर ढक दिया जाता है। जिससे केचुओं को अनुकूल वातावरण मिल सके।एक बेड का निर्माण हो जाने पर उसके बगल में दूसरे उसके बाद तीसरे बेड बनाते हुए जरूरत के अनुसार कई बेड बनाये जा सकते हैं। शुरुआत में पहले बेड में केंचुए डालने होते हैं जोकि उस बेड में उपस्थित गोबर और जैव-भार को खाद में परिवर्तित कर देते हैं। एक बेड का खाद बन जाने के बाद केंचुओ को छान कर वर्मी कॉम्पोस्ट से अलग करके इन्हें दूसरे बेड में डाल दिया जाता हैं। और वर्मी कम्पोस्ट अलग करके छानकर भंडारित कर लिया जाता है तथा पुनः इस पर गोबर आदि का ढेर लगाकर बेड बना लेते हैं।

4 टटिया विधि


इस विधि मे प्लास्टिक की बोरी या तिरपाल से बांस के माध्यम से टटिया बनाकर वर्मी कम्पोस्ट का निर्माण किया जाता है। किसान भाई घर पर ही प्लास्टिक की बोरियों को खोलकर और कई बोरियो को एक साथ मिलाकर सिलाई करके ये टटिया तैयार कर सकते है। या फिर बाजार से भी इन्हें खरीद सकते है। इन सिली हुई बोरियो को बांस या लट्ठे के सहारे चारो ओर से सहारा देकर गोलाई में रख कर उसमें गोबर जैव अवशेष डाल दिया जाता है। गोबर के आधगला होने पर गोबर में केंचुए डाल दिए जाते है। टटिया विधि से वर्मी कम्पोस्ट का निर्माण करने पर लागत बहुत ही कम आती है। और इसे ज़रूरत के अनुसार उठा कर एक जगह से दूसरी जगह पर भी आसानी से रखा जाता है।

वर्मी कम्पोस्ट तैयार करने की पूरी प्रक्रिया


1- किसान भाई से पहले जैविक कचरा तथा गोबर एकत्रित करके इस कचरे में से पत्थर,काँच,प्लास्टिक,रबर तथा धातुओं को निकल कर अलग करलेे।
2-  बड़े जैविक कचरे जैसे फसल की पत्तिया, पौधों के तने, गन्ने की खोयी को काटकर 2-4 इन्च आकार के छोटे-छोटे टुकड़ों में बदल लें। ऐसा करने से कम्पोस्ट खाद बनने में कम समय लगता है।
3- जैविक कचरे से दुर्गन्ध दूर करने तथा अवाँछित जीवों को खत्म करने के लिए कचरे को एक फुट मोटी सतह के रुप में फैलाकर धूप में सुखाया जाता है।
4- अब जैविक कचरे को गाय या भैंस के गोबर में अच्छी तरह मिलाकर करीब एक माह तक सड़ाने सड़ने के लिए गड्डों अथवा बेड में एक ढेर के रूप मे डाल दिया जाता है। इस ढेर मे पर्याप्त नमी बनाये रखने के लिए आवश्यकतानुसार पानी का छिड़काव करते रहे।
5- वर्मी कम्पोस्ट तैयार करने के लिए सबसे पहले बेड या गडढे के फर्श पर बालू की 1 इन्च मोटी पर्त बिछाई जाती है फिर इसके ऊपर 3-4 इन्च मोटाई में फसल का अवशिष्ट की पर्त बिछाते हैं। पुन: इसके ऊपर एक माह तक गले कचरे और गोबर की 18 इन्च मोटी पर्त इस प्रकार बिछाते। इस प्रकार तैयार किये गए 10 फिट लम्बाई के बेड में लगभग 500 कि.ग्रा. कार्बनिक अवशिष्ट समा जाता है। इस बेड को अर्धवृत्त रखा जाता हैं। ताकि केंचुए को घूमने के लिए पर्याप्त स्थान तथा बेड में हवा का प्रबंधन ठीक प्रकार से संभव हो सके। अब इस बेड को 2-3 दिन के लिए ऐसे ही रहने दे। तथा बेड मे उचित नमी बनाये रखने के लिए पानी का छिड़काव करते  रहना चाहिए।
6- दो तीन दिन बाद जब बेड के सभी भागों में तापमान सामान्य हो जाये तब एक बेड मे लगभग 5000 केंचुए  बेड की एक तरफ से इस प्रकार डालते हैं कि यह लम्बाई में एक तरफ से पूरे बेड तक आसानी से पहुँच जाये।
7- बेड या गड्ढ़े को फसलो के अवशिष्ट जैसे धान की पुआल की 3-4 इन्च मोटी पर्त से ढक देते हैं। बेड को ढकने के लिए जूट के बोरो का प्रयोग भी अच्छा होता है। अनुकूल परिस्थितया मिलने पर केंचुए इस पूरे बेड पर अपने आप फेल जाते हैं। ज्यादातर केंचुए बेड में 2-3 इन्च गहराई पर रहकर कार्बनिक पदार्थों का भक्षण करके वर्मी कम्पोस्ट का उत्सर्जन करने लगते हैं।
8- अनुकूल आर्द्रता, तापक्रम तथा हवामय परिस्थितयोंमें 25 से 30 दिनों के बाद बेड की ऊपरी सतह पर 3-4 इन्च मोटी केंचुआ खाद(वर्मी कम्पोस्ट) एकत्र हो जाती हैं। इसे अलग करने के लिए बेड की बाहरी आवरण सतह को एक तरफ से हटाते हैं। ऐसा करने पर जब केंचुए बेड में गहराई में चले जाते हैं तब केंचुआ खाद को बेड से आसानी से अलग कर लिया जाता है। इसके बाद बेड को फिर से पहले की तरह कचरे या जूट के बोरो से ढक कर पर्याप्त आर्द्रता बनाये रखने हेतु पानी का छिड़काव कर देते हैं।
9- लगभग 5-7 दिनों में दोबारा वर्मी कम्पोस्ट की 4-6 इन्च मोटी एक ओर पर्त तैयार हो जाती है। इसे भी पूर्व की भाँति ही अलग कर लिया जाता हैं। तथा बेड में फिर पर्याप्त आर्द्रता बनाये रखने हेतु पानी का छिड़काव किया जाता है।
इसी प्रकार प्रति सप्ताह के अंतराल पर बेड के ऊपर वर्मी कम्पोस्ट की 5 से 6 इंच मोटी पर्त तैयार होती रहेगी। इस प्रकार 40 से 45 दिनों मे लगभग 85 प्रतिशत वर्मी कम्पोस्ट बनकर तैयार हो जाती है।
10- बेड पर बची बाकी 15 प्रतिशत कॉम्पोस्ट कुछ केंचुओं तथा केचुए के अण्डों (कोकूनद) सहित दूसरी बार बेड तैयार करते समय केचुए के संरोप के रुप में प्रयुक्त कर लेते हैं। इस प्रकार लगातार केंचुआखाद उत्पादन के लिए इस प्रकिर्या को दोहराते रहते हैं।
11- वर्मीकम्पोस्ट को प्लास्टिक/एच0 डी0 पी0 ई0 थैले में सील करके पैक किया जाता है ताकि इसमें नमी कम न हो।



वर्मीकम्पोस्ट बनाते समय ध्यान देने योग्य कुछ बाते


किसान भाईयो कम समय में उच्च गुणवत्ता वाली वर्मीकम्पोस्ट बनाने के लिए विशेष बातोंपर ध्यान देने की अति आवश्यकता होती है । जो इस प्रकार है।
1- वर्मी कम्पोस्ट तैयार करने वाले बेडों अथवा गडढों में केंचुआ छोड़ने से पहले कच्चे उत्पाद (गोबर व आवश्यक कचरा) का आंशिक विच्छेदन कर लेना जरूरी है।जिसमें 15 से 20 दिन का समय लगता है
2- ये जानने के लिए की वर्मी बेड पर डाले गए गोबर तथा कचरे के ढेऱ में केंचुआ के लिए अनकूल वातावरण है या नही इस ढेर मे गहराई तक हाथ डालने पर गर्मीं महसूस नहीं होनी चाहिए। कचरे के अंदर का तापमान सामान्य होने पर ही उसमे केचुए डालने चाहिए।
3- वर्मी बेडों से अच्छी वर्मी कम्पोस्ट तैयार करने के लिए गोबर तथा कचरे के ढेर मे 30 से 40 प्रतिशत नमी बनाये रखना जरूरी है। क्यों कि कचरें में नमीं कम या अधिक होने पर केंचुए ठीक तरह से कार्य नही करतें।
4- वर्मी कम्पोस्ट बेडों पर पड़े कचरे के ढेर के अंदर का तापमान 20 से 27 डिग्री सेल्सियस रहना बहुत जरूरी  है। तापमान कम या अधिक होने पर केचुए मरने लगते है। इन बेडों पर तेज धूप न पड़ने दें। तेज धूप पड़ने से कचरे का तापमान बढ़ जाता है। और केंचुए बेड की तली में चले जाते हैं या अक्रियाशील रह कर मर जाते हैं।
5-  वर्मी कम्पोस्ट बनाते समय इस बात का विशेष ध्यान रखे कि बेड अथवा गडढे में ताजे गोबर का प्रयोग कभी भी न करें। ताजे गोबर में अधिक गर्मी होने के कारण केंचुए मर जाते हैं।
6-  अच्ची क्वालटी की वर्मी कम्पोस्ट तैयार करने के लिए जैविक कचरे में गोबर की कम से कम 20 प्रतिशत मात्रा होनी चाहिए।
7- कांग्रेस घास को फूल आने से पहले गाय अथवा भैंस के गोबर में मिला कर और आंशिक विच्छेदन कर के इस का प्रयोग जैविक कचरे के रूप मे करने से अच्छी केंचुआ खाद प्राप्त होती है।
8- कचरे का पी. एच. उदासीन (7.0 के आसपास) रहने पर केंचुए तेजी से कार्य करते हैं। कचरे का पी. एच. उदासीन बनाये रखने के लिए। बेड तैयार करते समय उसमें राख (ash) अवश्य मिलाएं।
9- केंचुआ खाद बनाने के दौरान किसी भी तरह के कीटनाशकों का उपयोग न करें।
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Sunday, January 23, 2022

समय से किसान क्रैडिट कार्ड जमा करने मे किसानों का फायदा। लोनमाफी के चक्कर मे न पड़े किसान।


किसान क्रेडिट कार्ड (KCC) 
किसान क्रेडिट कार्ड (KCC) भारतीय किसानों के लिये सरकार द्वारा लॉन्च की गयी एक योजना है जिसके अंतर्गत किसानों को कम  ब्याज दर पर बैंको द्वरा ऋण उपलब्ध कराना है। ताकि उन्हें असंगठित क्षेत्र से ज़्यादा ब्याज दरों पर पैसा उधार ना लेना पडे। किसान आवश्यकता पड़ने पर इस कार्ड से लोन ले सकते हैं। यदि किसान समय पर भुगतान करते हैं तो इस लोन पर लागू ब्याज दर भी कम ही रहती है। 
 किसान क्रेडिट कार्ड जिसको  के.सी.सी. (kcc) लोन के नाम से भी जानते है, उसके बारे में कुछ तथ्य साझा करने जा रहा हूं। उन सब तथ्यों के आधार पर आप को ये समझने में आसानी होगी कि लोन समय पर भरने से फायदा है या लोन माफी का इंतज़ार करने में।
(1)किसान क्रेडिट कार्ड पर 1 रुपए से लेकर 3 लाख रुपए तक 7% की दर से ब्याज लगता है जो छ: माही आधार पर(31 मार्च और30 सितंबर को )लगता है, अगर आपने एक वर्ष के भीतर अपने खाते का नवीनीकरण जिसको ज्यादातर लोग के.सी.सी. पलटी करवाना भी बोलते है, करवा लिया तो आपको सब्सिडी के रूप में 3% ब्याज वापस मिल जाता है। यानी जो किसान समय से अपना लोन भर देते है, उसको केवल 4 प्रतिशत साधारण ब्याज की दर से ही यह लोन मिलता है।
(2) जो किसान एक वर्ष के भीतर अपने खाते का नवीनीकरण नहीं करवा पाते उन्हें सब्सिडी का फायदा भी नहीं मिल पाता, और साथ में ज्यादातर बैंको में उसके लोन पर ब्याज के साथ पेनल्टी भी लगती है, और उसके खाते पर ब्याज दर 7% के स्थान पर 9% लगने लगयी जाती है, इसके साथ ही प्रतिवर्ष यह ब्याज दर बढ़ती रहती है, कुछ मामलो और बैंको में यह  3 वर्ष बाद 14 प्रतिशत तक पहुंच जाती है।
 बहुत से किसान नेताओ के चुनावी वादों के चक्कर में किसान भाई लोन माफी की उम्मीद में अपने खातों को नियमित नहीं भरते और जब बैंक रोड़ा के तहत जमीन नीलामी की कारवाई करता है तब ब्याज,पेनल्टी ,लीगल चार्ज और रोड़ा चार्ज के साथ पैसे जमा करवाते है।
(4)कोई भी सरकार कभी भी सम्पूर्ण के.सी.सी लोन माफ नहीं कर पाएगी, जब भी कोई सरकार लोन माफी की घोषणा करती है तो लोगो को लगता है, की उनका सम्पूर्ण लोन माफ हो जाएगा ,लेकिन जब बैंको के पास इसका सर्कुलर आता है,तो पता चलता है कि उसमे बहुत सी शर्तें है, और केवल किसानों का बीस हजार, तीस हजार अधिकतम 50 हजार तक का ही कर्जा माफ हुआ है, उसमे भी बहुत सी छुपी हुई शर्तें।
अब एक एग्जाम्पल के माध्यम से समझते है, 
माना किसी किसान ने 3 लाख रुपए का केसीसी लोन लिया और वह उसका तीन वर्ष तक समय पर नवीनीकरण कराता रहा तो उसने 4 वर्ष में कूल ब्याज 12000*4=48000 रुपए भरा।
अब दूसरे मामले किसान ने लोन माफी के इंतज़ार में 4 वर्षो तक एक रुपया भी नहीं भरा तो उसका 
पहले वर्ष का ब्याज = 300000 का 7 प्रतिशत =21000(एक वर्ष बाद कूल मूलधन 321000)
दूसरे वर्ष का ब्याज=321000 का 9 प्रतिशत=28890(दूसरे वर्ष के बाद कूल मूलधन 349890)
तीसरे वर्ष का ब्याज=349890 का 11 प्रतिशत =38487(तीसरे वर्ष के बाद कूल मूलधन 388377)
चोथे वर्ष का ब्याज=388377 का 14 प्रतिशत=87472
4 वर्षो बाद कूल मूलधन=475849

उक्त दोनों मामलों में हमने देखा जिस किसान ने अपने लोन का भुगतान समय पर किया है उसे केवल 48000 रुपए का ब्याज भरना पड़ा और जिसने समय पर भुगतान नहीं किया उसे केवल ब्याज के रूप में 175849 रुपए भरने पड़े, अगर इस पर पेनल्टी ,लीगल चार्ज और रोड़ा चार्ज जोड़ते है तो यह राशि लगभग 250000 के लगभग जाती है।
(5)अगर आपने समय पर भुगतान नहीं किया तो आपका सिबिल स्कोर खराब हो जाता है जिससे भविष्य में आपको कोई भी लोन लेने में काफी परेशानी का सामना करना पड़ सकता है।
(6)बहुत से किसान समझौते के तहत लोन में छूट के इंतज़ार में बैठे रहते है ,तो मैं उनको बताना चाहता हूं समझौते के तहत लोन बैंक ज्यादातर उन मामलों में ही करता है जब बैंक ने रिकवरी के अपनी तरफ से पूरे प्रयास कर लिए और ऑक्शन भी फ़ैल हो जाए, और खाते को एनपीए हुए काफी ज्यादा समय हो जाए।
(7)अगर एकमुश्त समझौते के तहत आपने लोन राशि में कुछ छूट के साथ लोन बंद भी करवा लिया तो वो भी आपकी सिबिल में दिखता है कि आपने लोन को समझौते के तहत बंद करवाया है तो आपको कहीं दुबारा से लोन नहीं मिलेगा।
5 साल में एक बार चुनाव होते है चुनावों के आसपास अगर कोई सरकार 40-50 हजार रूपए माफ भी कर देती है तो भी आप उन किसानों के मुकाबले  काफी नुकसान में रहते हो जिन्होंने अपने केसीसी का भुगतान समय पर किया है।
(8) जो भी किसान अपने खाते का समय पर नवीनीकरण करवाता है उसको बैंक प्रतिवर्ष 10 प्रतिशत  केसीसी लिमिट बढ़ाने की सुविधा भी देता है।
(9)अगर आपके पास केसीसी पलटी के समय पूरी राशि नहीं भी होती है तो भी ज्यादातर बैंक केवल ब्याज जमा करवा कर लिमिट नवीनीकरण कर देते है।
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Friday, January 21, 2022

सरसो की उन्नत खेती कैसे करे किसान? Kisan help room



सरसो

सरसों अर्थात राई भारत की प्रमुख तिलहनी फसल है । हरियाणा में प्रमुखता के साथ ही उत्तरप्रदेश, पंजाब, बिहार, राजिस्थान, मध्यप्रदेश आदि राज्यो में भी सरसो की खेती की जाती है। कम समय और कम खर्च में अधिक मुनाफा देने वाली सरसो की फसल के हरे पौधों का प्रयोग किसान भाई अपने पशुओं के हरे चारे के रूप में भी कर सकते है। इसके साथ ही पशु आहार के रूप में इसके बीज, तेल, तथा खली को लेसकते हैं।और इनका प्रभाव पशुओ पर बहुत ही अधिक होता है। यें हमारे पशुओ में कई प्रकार के रोगो की रोकथाम में भी सहायक सिद्ध होते है। 

सरसो के तेल को खाद्य पदार्थो के साथ साथ ही कई औद्योगिक उत्पादनो भी प्रयोग किया जाता है। इसके साथ ही फल तथा सब्जियों के परिरक्षण के रूप में भी किया जाता है। सरसों के बीज में तेल की मात्रा 30 से 48 प्रतिशत तक पायी जाती है।

सरसो की खली को हमारे किसान भाई पशु आहार के साथ ही कुछ किसान अपने खेतों में खाद के रूप में भी प्रयोग करते है। इसमें में लगभग 4 से 9 प्रतिषत नत्रजन, 2.5 प्रतिषत फॉस्फोरस तथा 1.5 प्रतिषत पोटाश होता है।

इसके सूखे तनों को ईधन के रूप में जलाने के काम मे लिया जाता है। 

जलवायु तथा मिट्टी

भारत में सरसों की खेती शरद ऋतु में अक्टूबर से शुरू की जाती है और फरवरी, मार्च में इसकी कटाई की जाती है। इस फसल को 18 से 25 सेल्सियस तापमान की आवश्यकता होती है। सरसों की फसल के लिए फूल आते समय वर्षा, अधिक आर्द्रता एवं वायुमण्ड़ल में बादल छायें रहना अच्छा नही होता है। ऐसे मौसम में सरसों फसल पर माहू या चैपा का प्रकोप हो जाता हैं।

सरसों की खेती रेतीली मिट्टी से लेकर भारी मटियार मिट्टी में भी की जा सकती है। लेकिन बलुई दोमट मिट्टी इसके लीये सर्वाधिक उपयुक्त होती है। यह फसल हल्की क्षारीयता को सहन कर सकती है। लेकिन मिट्टी अम्लीय नही होनी चाहिए।

सरसों की उन्नत किस्में:

आर एच 30 : सिंचित व असिचित दोनो ही क्षेत्रो में गेहूु, चना और जौ के साथ खेती के लिए उपयुक्त इसस किस्म के पौधों 196 सेन्टीमीटर ऊचे, तथा 5से 6 प्राथमिक शाखाओ वाले होते है। यह किस्म देर से बुवाई के लिए भी उपयुक्त है। इस किस्म में 45 से 50 दिन के बीच में फूल आने लगते है। और फसल लगभग 130 से 135 दिन में पक कर तैयार हो जाती है।  इसके दाने मोटे चमकदार होते है। यदि 15 से 20 अक्टूबर तक इसकी बुवाई कर दी जाये तो मोयले के प्रकोप से बचा जा सकता है।



टी 59 (वरूणा) : मध्यम कद वाली इस किस्म की सरसो के पकने की अवधि लगभग 125 से 140 दिन है। इस किस्म की फलिया चौडी तथा छोटी और दाने मोटे काले रंग के होते है। इसमें तेल की मात्रा 36 प्रतिषत होती है।

पूसा गोल्ड : मध्यम कद वाली इस किसम की शाखाए फलियों से भरी हुई व फलिया मोटी होती है। यह 130 से 140 दिन में पककर तैयार हो जाती है। 20 से 25 कुंतल प्रति हैक्टर उपज देती है। इसमें तेल की मात्रा 37 से 38 प्रतिषत तक पायी जाती है।

बायो 902 (पूसा जयकिसान)  : 160 से 180 से. मी. ऊँची वाली इस किस्म में सफेद रोली ,मुरझान व तुलासितस रोगो का प्रकोप अन्य किस्मों की अपेक्षा कम होता है। इसकी फलिया पकने पर दाने झड़ते नही एवं इसका दाना कालापन लिए भूरे रंग का होता है। इसकी उपज 18 से 20 कुंतल प्रति हेक्टर है। फसल पकने की अवधि 130 से 140 दिन तथा तेल की मात्रा 38 से 40 प्रतिषत होती है।  इसका तेल खाने के लिए उपयुक्त होता है।

वसुन्धरा (आर.एच. 9304) : सिंचित क्षेत्र में बोई जाने वाली इस किस्म का पौधा 180 से 190 से. मी. ऊँचा होता है। 130 से 135 दिन में पकने वाली इस किस्म की पैदावार 25 से 27 कुंतल प्रति हेक्टर तक होती है। यह किस्म आड़ी गिरने तथा फली चटखने से प्रतिरोध है तथा सफेद रोली से मध्यम प्रतिरोधी भी है।

अरावली (आर.एन.393) : 135 से 138 दिन में पकने वाली किस्म आरावली के पौधे मध्यम  ऊंचाई के होते है। इस किस्म में तेल की मात्रा 40 प्रतिशत तक होती  है। इसमे 55 से 60 दिनो के बीच ही पौधों पर फूल आने लगते है। इसकी औसत पैदावार 22 से 25 क्विं. हेक्टर तक होती है। यह सफेद रोली से मध्यम प्रतिरोधी है।

जगन्नाय (बी. एस. एल.5) : यह किस्म समय से बुवाई और सिचित क्षैत्र के लिए उपयुक्त है। मध्यम ऊँचाई वाली  यह किस्म लगभग 125 से 130 दिन में पककर तैयार हो जाती है। इसके दाना स्लेटी से काले रंग का मध्यम मोटा होता है । इसमे तेल की मात्रा 39 से 40 प्रतिषत तथा इसकी औसत पैदावार 20 से 22 कुंतल प्रति हैक्टर तक होती है। यह किस्म पत्ती धब्बा रोग तथा सफेद रोली के प्रति मध्य प्रतिरोधी है आड़ी गिरने व फली चटखने से प्रतिरोधी होती है।

लक्ष्मी (आर .एच. 8812) : समय से बंवाई एवं सिचिंत क्षेत्र के लिए उपयोगी किसम है। अधिक ऊचाई वाली  यह किस्म 140 से 150 दिन में पककर तैयार हो जाती है। पत्तियॉ छोटी एव पतली होती है। फली आने पर भार के कारण आड़ी पडने की सम्भावना बनी रहती है। फलियॉ मोटी एवं पकने पर चटखती नही है। दाना काला तथा मोटा होता है। तेल की मात्रा 40 प्रतिशत होती है। तथा औसत पैदावार 22 से 25 कुंतल प्रति हैक्टयर होती है यह किस्म पत्ती धब्बा रोग एवं सफेद रोली से मध्यम प्रतिरोधी है।

स्वर्ण ज्योति (आर. एच. 9820) : देर से बुवाई की जाने तथा सिंचित क्षेत्र के लिये उपयुक्त। पौधा मध्यम ऊँचाई का लगभग 135से 140 दिन में पककर तैयार हो जाती है तेल की मात्रा 39 से 40 प्रतिशत तक होती है। यह किस्म 15 नवम्बर तक बोई जाने पर भी अच्छी पैदावार देती है इसकी औसत पैदावार 13 से15 कुंतल प्रति हैक्टयर होती है। यह आड़ी गिरने एवं फली छिटकने से प्रतिरोधी है तथा पाले के लिए मध्यम सहनशील  एवं सफेद रोली से मध्य प्रतिरोधी है।

आषीर्वाद (आर. के. 01से03) : यह किस्म देरी से बुवाई के लिए लगभग 25 अक्टुबर से 15 नवम्बर तक उपयुक्त पायी गई है। इसका पौधा 130 से 140 से. मी. ऊँचा होता है। यह किस्म 120 से 130 दिन में पककर तैयार हो जाती है। इसमे तेल की मात्रा 39 से41 प्रतिशत तक होती है। प्रति हेक्टयर उपज 13 से 15 कुंतल। यह  किस्म आड़ी गिरने एवं फली छिटकने से प्रतिरोधी पाले से मध्यम प्रतिरोधी है।

खेत की तैयारी :

 अन्य फसलों की तरह सरसों की अच्छी फसल के लिए भी खेत की मिट्टी को भुर-भुरा करने की आवश्यकता होती है। इसेके लिए खरीफ की फसल कटाई के बाद हेरो या प्लाऊ से एक गहरी जुताई करनी चाहिए। गहरी जुताई के बाद तीन चार बाार देशी हल या कल्टीवेटर से जुताई हो होती है। जुताई के बाद पाटा लगाकर खेत को  समतल करना चाहिए। असिंचित क्षेत्र में वर्षा के पहले जुताई करके खरीफ मौसम में ही खेत पड़ती छोडना चाहिए जिससे वर्षा के पानी का संरक्षण हो सके । इसके बाद हल्की जुताई करके खेत तैयार करना चाहिए । यदि खेत में दीमक एवं अन्य कीटो का प्रकोप अधिक हो तो इसके नियंत्रण हेतु अन्तिम जुताई के समय क्यूनालफॉस 1.5 प्रतिशत चूर्ण 25 किलोग्राम प्रति हेक्टयर की दर से  खेत मे डालकर आखरी जुताई करनी चाहिए। और इसके साथ ही, उत्पादन बढ़ाने हेतु 2 से 3 किलोग्राम एजोटोबेक्टर एवं पी.ए.बी कल्चर की 50 किलोग्राम सड़ी हुई गोबर की खाद या वर्मीकल्चर में मिलाकर अंतिम जुर्ता से पुर्ण खेत में ड़ालना चाहिए।

सरसों की बुवाई :

सरसों की फसल बुवाई के लियें उपयुक्त तापमान 25 से 26 डिग्री सैल्सियस तक होता है। बारानी क्षेत्रो में सरसों की बुवाई 15 सितम्बर से 15 अक्टुबंर तक कर देनी चाहिए। सिंचित क्षैत्रो में अक्टूबर के अन्त तक बुवाई की जा सकती हैं  सरसों की बुवाई कतारो में करने से पैदावार में बढ़ोतरी होती है। सरसो बुवाई करते समय किसान भाई ध्यान दे कतार से कतार की दूरी 30 सें. मी. तथा पौधों से पौधें की दूरी 10 सें. मी. रखनी चाहिए। सिंचित क्षैत्र में बीज की गहराई 5 से. मी. तक रखी जाती है। असिचित क्षैत्र में बीज की गहराई नमी के अनुसार ही रखनी चाहिए।

बुंवाई के लिए बारानी क्षेत्रो में 4 से 5 कि.ग्रा तथा सिंचित क्षेत्रो में 2.5 कि. ग्रा बीज प्रति हैक्टर की दर से पर्याप्त रहता है।  बुवाइे से पहले बीज को 2.5 ग्राम मैन्कोजेब प्रति कि.ग्रा. बीज की दर से उपचारित अवश्य करें।

खाद व उर्वरक :

सिंचित क्षेत्र में सरसो की फसल के लिए 8 से 10 टन सड़ी हुई गोबर की खाद प्रति हेक्टर की दर से बुवाई के 3से 4 सप्ताह पहले ही खेत मे डालकर खेत की जुताई करे। और बारानी क्षत्र में वर्षा  पुर्व ही 4 से 5 टन सडी खाद प्रति हैक्टर खेत में डालनी चाहिए।

सिंचित क्षेत्र में 

80 कि.ग्रा. नत्रजन 

30 से 40 किग्रा फॉस्फोरस

375 किग्रा. जिप्सम या 60 किग्रा गन्धक चूर्ण प्रति हैक्टर की दर से डालें। 

नत्रजनकी आधी व फॉस्फोरस की पूरी मात्रा बुवाई के समय ही डाल दे। शेष आधी बची मात्रा प्रथम सिचाई के समय दे।

सिंचाई :

सरसों की फसल में सही समय पर सिंचाई करने पर पैदावार अच्छी होती है। यदि वर्षा अधिक होती है। तो फससल को सिचाई की आवष्यकता नही होती है। यदि वर्षा समय पर न हो तो खेत की 2 बार सिंचाई करनी चाहिए। प्रथम सिंचाई बुवाई के 30 से 40 दिन बाद और दूसरी सिचाइ 70 सें 80 दिन की अवस्था में करे । यदि जल की कमी हो तो एक सिचाई 40 से 50 दिन की फसल में ही करदे।

निराई गुडाई तथा खरपतवार नियन्त्रण :

फसल के साथ खेत मे उगने वाले खरपतवार को समय रहते ही खेत से निकाल देना चाहिये।

सरसो बुवाई के 20 से 25 दिन बाद निराई करना चाहिये। खरपतवार के साथ ही सरसो के फालतू पौधों की भी छटाई कर देनी चाहिये तथा पौधों के बीच 8 से 10 सेन्टी मीटर की दूर रखनी चाहिए। सिचाई के बाद गुडाई करने से पैदावार अच्छी होगी।

प्याजी की रोकथाम के लियें फ्लूम्लोरेलिन एक लीटर सक्रिय तत्व प्रति हैक्टर भूमि में मिलावें। जहा पलेना करके बुवाई की जानी हो वहों सूखी बुवाई की स्थिति में पहलें फसल की बुवाई करे इसकें बाद फ्लूम्लोरेलिन का छिड़काव कर सिचाई करनी चाहिए।

फसल की कटाई :

प्रायः सरसों की फल लगभग 120 से150 दिन में पक्कर तैयार हो जाती है। सरसो की फसल कटाई उचित समय पर करना अत्यन्त आवश्यक है। यदि समय पर सरसो फसल की कटाई नहीं की जाती है। तो फलि‍याँ चटकने लगती है। जिससे उपज में 5 से 10 प्रतिषत की कमी आ जाती है।



र्जैसे ही पौधे की पत्तियों एवं फलियों का र्रंग पीला पड़ने लगें फसल की कटाई कर लेनी चाहिए। कटाई के समय इस बात का विशेष ध्यान रखे की सत्यानाषी खरपतवार का बीज, फल के साथ न मिलने पाये नही तों इस फसल के दूषित तेल से मनुष्य में ड्रोपसी  नामक बीमारी हो जाती है।

फसल काटने के बाद उसे थ्रेशर मशीन से निकाल कर दाने तथा भूसे को अलग करलेते है। सरसो के दानों को बोरियो में भरकर स्टोर में भेज दिया जाता है। और भूसा का उपयोग गलाकर कार्बनिक खाद के रूप में खुद किसान भाई ही करते है। अथवा फेक्ट्रियो में जलाने के लिये बेच देते है।

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यूपी गौशालाओ में कड़ाके की ठंड और भूख से मर रही है गॉय। हालात बेकाबू।


लखनऊ: उत्तरप्रदेश के बुंदेलखंड में सड़कों पर मृत गायों के शव दिखना अब एक आम बात बन चुकी है। अब इतने गिद्ध और चील, कौवे भी नहीं बचे कि वे मृत गौमाता के अवशेष को खाकर खत्म कर सकें। बुंदेलखंड में बहुत सी जगहों पर मृत गौमाता के अवशेष देखने को मिल जाएँगे।
उत्तर प्रदेश के ही झांसी जिले की गौशालाओं से दिल दहला देने वाला मामला सामने आया है। बरुआसागर की घुघुआ गौशाला में तेज ठंड और भूख से गौमाता तड़प-तड़प कर मर रही हैं, एक साथ सात गौमाता जमीन पर पड़ी कराह रही हैं, पैर पटक रही हैं।
घुघुआ गौशाला में ख़बर लिखे जाने तक सौ से अधिक गोमाताए हैं जिनमें से सात  जमीन पर गिर चुकी हैं। दो जिंदा गायों की आंखें कौवे निकाल चुके हैं, अभी भी उन गायों में जान है, वो पैर पटक सकती हैं, कान हिला सकती हैं लेकिन अब देख नहीं सकती हैं क्योंकि कौवों ने उनकी आंखें निकाल ली हैं। अब आंख की जगह खून की धारा फूट चुकी है।
घुघुआ गौशाला में काम करने वाले मुकुंदी कुशवाहा बतया कि गौशाला में पिछले 10 दिन में लगभग 20 से अधिक गायें भूख और ठंड से मर चुकी हैं। और अभी भी 2 से 3 गायें प्रतिदिन मर रही हैं। गौशाला में गायों के रहने के लिए न तो उचित व्यवस्था ही है और न ही उनके खाने के लिए पर्याप्त चारा है। 100 गायों के लीये एक दिन में मात्र 1 बोरी चोकर है बाकी मोंगफली के छिलके के साथ गेहू का थोड़ा सा भूसा ही उपलब्ध है।
पिछले साल जुलाई  में उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने अपने  अधिकारियों को राज्य की सभी गौशालाओं का निरीक्षण करने का निर्देश दिया था और संयुक्त निदेशक स्तर के अधिकारियों को प्रत्येक जिले का दौरा कर 1 सप्ताह के भीतर जिलेवार अपनी रिपोर्ट पेश करने का हुक्म भी सुनाया था। मुख्यमंत्री ने यह भी कहा था कि गौमाता के लिए हरा चारा, भूसा आदि की पर्याप्त व्यवस्था की जाए। लेकिन अब बिल्कुल उलट स्थिति सामने आई है।
उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ में पिछले दस दिनों में अधिकतम तापमान 20 डिग्री और न्यूनतम 5 डिग्री सेल्सियस दर्ज किया गया है। वहीं बुंदेलखंड के जिलों में पांच दिनों तक लगातार बारिश और ओले पड़ने के बाद तापमान में तेजी से गिरावट देखी गई है। चार दिन पहले 15 जनवरी 2022 को झांसी जिले में न्यूनतम तापमान 7 डिग्री सेल्सियस, 16 जनवरी को 5 डिग्री सेल्सियस, 17 जनवरी को 6 डिग्री सेल्सियस, 18 जनवरी को 5 डिग्री सेल्सियस और आज यानी 19 जनवरी को दोपहर तक न्यूनतम तापमान 8 डिग्री सेल्सियस दर्ज किया गया है।
गौमाता की हालत  अब पूरे प्रदेश में दयनीय हो चुकी है।
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Wednesday, January 12, 2022

जैविक खेती आसान और सुरक्षित। किसानों की बढ़ेगी आय।


जैविक खेती

जैविक खेती को बढ़ावा देने के लिए हमारा प्रमुख उद्दश्य है जहर मुक्त भोजन और किसानो की आय मे व्रद्धि। जैसा कि हमारे सभी पाठक ये बहुत ही अच्छी तरह से जानते है कि पूरे विश्व में तेजी से बढ़ती हुई जनसंख्या एक गंभीर रूप धारण करती जा रही है। और इस बढ़ती हुई जनसंख्या के साथ भोजन की समस्या भी दानव की तरह मानव के सामने खड़ी है।इतनी बड़ी जनसंख्या को भोजनआपूर्ति के लिए मानव द्वारा खाद्य उत्पादन की भी एक होड़ सी लगी है। और इस होड़ में अधिक से अधिक उत्पादन प्राप्त करने के लिए किसानो द्वरा तरह-तरह के रासायनिक खादों, जहरीले कीटनाशकों का अपने खेतो भारी मात्रा मे लगातार प्रयोग प्रकृति के जैविक और अजैविक पदार्थो के बीच आदान-प्रदान के चक्र को (इकालाजी सिस्टम) प्रभावित कर रहा है। और इसका परिणाम भी आज हमारे सामने है। हमारी भूमि की उर्वरा शक्ति लगातार घटती जा रही है। और इसके साथ ही वातावरण भी तेजी से प्रदूषित हो रहा है। हजारो हेक्टेयर उपजाऊ भूमि अबतक बंजर भूमि मे बदल चुकी है। और इसका प्रमुख कारण है अधिक मात्रा मे रासायनिक उर्वरकों का उपयोग।

जानकर बताते है कि प्राचीन काल में मानव स्वास्थ्य के अनुकुल तथा प्राकृतिक वातावरण के अनुरूप ही खेती की जाती थी। जिस के कारण जैविक और अजैविक पदार्थो के बीच आदान-प्रदान का चक्र Ecological system लगातार चलता रहा था। इसके परिणामस्वरूप भूमि, वायु तथा वातावरण प्रदूषित नहीं होता था। कहते है कि भारत वर्ष में प्राचीन काल से किसानो द्वारा खेती-बाड़ी के साथ-साथ पशुपालन भी किया जाता था। पशुपालन संयुक्त रूप से अत्याधिक लाभदायी था, ये चक्र प्राणी मात्र के साथ-साथ ही वातावरण के लिए भी बहुत ही उपयोगी था। लेकिन परिवेश बदलने के साथ पशुपालन भी धीरे-धीरे कम हो गया जिसके कारण जैविक खादों की कमी बढ़ती गयी और फसलो में तरह-तरह की रसायनिक खादों व कीटनाशकों का प्रयोग तेजी से बढ़ता गया। इसी के परिणामस्वरूप जैविक और अजैविक पदार्थो के चक्र का संतुलन बिगड़ता जा रहा है। और हमारा वातावरण तेजी से प्रदूषित होकर मानव जाति के साथ-साथ समस्त जीवों के स्वास्थ्य को प्रभावित कर रहा है।

इन्ही सब कारणों को ध्यान में रखकर किसान भाईयो को रसायनिक खादों, जहरीले कीटनाशकों के स्थान पर, जैविक खादों एवं दवाईयों का उपयोग करने के लिए प्रेरित किया जा रहा है। जिससे हमारे किसान भाई अधिक से अधिक उत्पादन प्राप्त कर सकते है। और साथ ही भूमि, जल एवं वातावरण शुध्द रहेगा तथा मनुष्य एवं प्रत्येक जीवधारी भी स्वस्थ रहेंगे।

जैसा कि हमारे सभी पाठकगण जानते है कि हमारे भारत वर्ष की ग्रामीण अर्थवयवस्था पूरी तरह से कृषि पर आधारित है। और किसानों की आय का मुख्य साधन खेतो से प्राप्त फसल है। और अधिक फसल उत्पादन के लिये फसलो में अधिक मात्रा में रासायनिक उर्वरको एवं कीटनाशक का उपयोग करना पड़ता है जिससे सीमांत व छोटे किसानों के पास कम जोत मेें अत्यधिक लागत लग रही है इसके साथ ही जल, भूमि, वायु और वातावरण भी प्रदूषित हो रहा है। रासायनिक उर्वरकों के इस अधिक उपयोग से ही खाद्य पदार्थ भी जहरीले हो रहे हैे। इसलिए इस प्रकार की उपरोक्त सभी समस्याओं से निपटने के लिये गत वर्षो से निरन्तर टिकाऊ खेती के सिद्धांत पर खेती करने की सिफारिश की गई। कृषि विभाग ने इस विशेष प्रकार की खेती को अपनाने के लिए, बढ़ावा दिया जिसे हम ''जैविक खेती'' के नाम से जानते हेै। भारत सरकार भी इस खेती को अपनाने के लिए प्रचार-प्रसार कर रही है।

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